पदार्थान्वयभाषाः - (यविष्ठ) हे तीनों लोकों के साथ अत्यन्त संयुक्त होनेवाले (उशतः-देवान्) तुझे चाहनेवाले ज्योतिर्विद्या-ज्ञाता विद्वानों को (पिप्रीहि) अपने विज्ञान से प्रसन्न कर-सन्तुष्ट कर (ऋतुपते) हे ऋतुओं के स्वामी या पालक ! (विद्वान्) उन्हें जनाने के हेतु (इह) इस संसार में (ऋतून् यज) वसन्त आदि ऋतुओं य कालों-कालविभागों-वर्ष, मास, दिन, रात्रि, प्रहर आदि को सङ्गत कर (ये दैव्याः-ऋत्विजः) जो मनुष्यों के नहीं किन्तु देवों-आकाशीय देवों के ऋत्विक् मन्त्र-मननीय वचन, विचार या दिशाएँ हैं (तेभिः) उनके द्वारा (अग्ने त्वम्) हे सूर्य ! तू (होतॄणाम्-आयजिष्ठः) उन ज्ञानग्राहक विद्वानों को सब ओर से अत्यन्त ज्ञानग्रहण करानेवाला है॥१॥
भावार्थभाषाः - ज्योतिषी विद्वानों के लिये सूर्य एक ज्ञान ग्रहण कराने का साधन है। ऋतु या कालविभाग सूर्य से ही होते हैं तथा दिशाओं में वर्त्तमान ग्रह, तारे आदि का ज्ञान भी सूर्य से ही मिलता है। विद्यासूर्य विद्वान् के द्वारा दिव्य ज्ञानों की प्राप्ति होती है। वह सुखद समय का निर्माण करता है, जीवनयात्रा की दिशाओं को दिखाता है॥१॥