वांछित मन्त्र चुनें

प्र नू॒नं जा॒तवे॑दस॒मश्वं॑ हिनोत वा॒जिन॑म् । इ॒दं नो॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra nūnaṁ jātavedasam aśvaṁ hinota vājinam | idaṁ no barhir āsade ||

पद पाठ

प्र । नू॒नम् । जा॒तऽवे॑दसम् । अश्व॑म् । हि॒नो॒त॒ । वा॒जिन॑म् । इ॒दम् । नः॒ । ब॒र्हिः । आ॒ऽसदे॑ ॥ १०.१८८.१

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:188» मन्त्र:1 | अष्टक:8» अध्याय:8» वर्ग:46» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:12» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

इस सूक्त में परमात्मा सर्वज्ञ सर्वसुखदाता तथा अग्नि अपने प्रकाश और ताप से यन्त्रयानों को चलाता है, इत्यादि विषय हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (जातवेदसम्) जात-उत्पन्न हुओं को जो जानता है, उस परमात्मा को या जात-उत्पन्न हुए को सब जानते हैं प्रकाश और ताप से उस अग्नि को तथा जिससे ज्ञात प्राप्त होता है वित्त धन उसकी कृपा से उस परमात्मा को या किसी भी यन्त्रयान में युक्त करने से धन प्राप्त होता है, उस अग्नि को (अश्वम्) व्यापक परमात्मा को या प्रगतिशील अग्नि को कर्मों द्वारा अश्व की भाँति यन्त्रयान को आगे जानेवाले को (वाजिनम्) अमृतान्न भोग दिलानेवाले परमात्मा को या साधारण अन्न दिलानेवाले अग्नि को (नूनम्) अवश्य (प्र-हिनोत) प्रकृष्टरूप में तृप्त करो-या प्राप्त करो तथा प्रेरित करो (नः) हमारे (इदं बर्हिः) इस हृदयाकाश में (आसदे) बैठने को या इस विस्तृत स्थान स्थल जल गगन को अग्नि प्राप्त करे ॥१॥
भावार्थभाषाः - उत्पन्नमात्र वस्तु को जाननेवाले तथा उसकी कृपा से धन भोग प्राप्त किया जाता है, उस व्यापक अमृतान्नभोग देनेवाले परमात्मा को स्तुति द्वारा प्रसन्न कर अपने हृदय में आमन्त्रित करना चाहिये एवं जो अपने प्रकाश और ताप से उत्पन्न होते ही जाना जाता है और जिससे किसी यन्त्रयान में प्रयुक्त करने पर धन अन्न प्राप्त होता है, उसे यन्त्रयान में प्रयुक्त करके अश्व घोड़े की भाँति चलानेवाले अग्नि को प्रयुक्त करना चाहिये ॥१॥
बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

अस्मिन् सूक्ते परमात्मा सर्वज्ञः सर्वसुखप्रदाता च तथा अग्निः स्वप्रकाशेन तापेन च विविधयन्त्रयानानि चालयतीत्यादयः विषयाः सन्ति।

पदार्थान्वयभाषाः - (जातवेदसम्) जातानि यो वेद तं परमात्मानं यद्वा जातं यं सर्वे जानन्ति प्रकाशेन तापेन च तं जातं प्राप्तं भवति वित्तं  धनं यत्कृपया यद्वा कस्मिंश्चिद् यन्त्रे याने यस्मात् प्रयुज्यमानात् तं जातवेदसम् (अश्वम्) व्यापकं यद्वा प्रगतिशीलं कर्मभिरश्वमिव यन्त्रयानमग्रेऽग्रे वहन्तम् (वाजिनम्) अमृतान्नभोगवन्तम् “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै० २।१।९३] परमात्मानं यद्वाऽन्नवन्तमन्नप्रदम् (नूनं प्रहिनोत) अवश्यं यूयं प्रकृष्टं प्रीणयत प्राप्नुत “हिन्वन्ति प्रीणयन्ति” [ऋ० १।१४४।५ दयानन्दः] “हिन्वन्ति-आप्नुवन्ति” [निरु० १।२०] प्रेरयत वर्धयत वा यूयं वैज्ञानिकाः (नः-इदं बर्हिः-आसदे) अस्माकमिदं हृदयान्तरिक्षे “बर्हिः अन्तरिक्षनाम” [निघ० १।३] आसीदितुं परमात्मा यद्वा-इदं भूमस्थानं विस्तृतस्थानं स्थलजलगगनरूपम् “भूमा वै बर्हिः” [श० १।५४।४] अग्निरासीदतु ॥१॥