पदार्थान्वयभाषाः - (श्रातं मन्ये) मैं पके हुए मानता हूँ-जानता हूँ (ऊधनि श्रातम्) जो गौ के ऊधस् में दूध है, उसे पका हुआ मानता हूँ (अग्नौ सुश्रातं मन्ये) अग्नि में सुपक्व मानता हूँ (तत्-नवीयः-ऋतम्) जो अत्यन्त नवीन कृषिभूमि में होता है कोमलरूप, वह गौ के दूध के समान होता है, कठोर कृषिभूमि में कठोर अन्न पके अन्न को अग्नि में पका हुआ मानता हूँ, वह अन्न राजा के लिए देना चाहिये (वज्रिन्-इन्द्र) हे वज्रवाले राजा इन्द्र ! तू बहुत कार्य करनेवाला (जुषाणः) हमें सेवन करनेवाला और प्रेम करनेवला है (माध्यन्दिनस्य-सवनस्य) वसन्तवाले दिनों में उत्पन्न हुए (दध्नः-पिब) तू मृदु द्रवरस को नवान्न फलरस को पी ॥३॥
भावार्थभाषाः - गौ के ऊधस् में दूध भी पके अन्न के समान निकलता हुआ सेवन करने योग्य है, अग्नि में पका हुआ सुपक्व कहलाता है, वह सेवन करने योग्य है, खेती का कठोर अन्न अग्नि में पका हुआ सेवन करने योग्य है, खेती का अत्यन्त मृदु अन्न भी गोदुग्ध की भाँति सेवन करने योग्य है, वसन्त ऋतु के दिनों में फलों के रस द्रव पदार्थ खाने योग्य हैं, इस प्रकार राजा पकी हुई कठोर वस्तु और द्रव वस्तु उपहार में प्राप्त करने का अधिकारी है ॥३॥