पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वे-ऊमाः) हे परमात्मन् ! तेरे द्वारा सब रक्षणीय मनुष्य (क्रतुम्) अपने कर्त्तव्य कर्म को (त्वे) तेरे में (वृञ्जन्ति) त्यागते हैं-समर्पित करते हैं (यत्) जिससे कि (एते) ये (द्विः) प्रथम एक ब्रह्मचारी पुनः विवाह के अनन्तर पत्नी के सहित दो हुए (त्रिः) फिर सन्तान होने पर तीन-परिवारवाले (अपि भवन्ति) भी हो जाते हैं, यह संसार है, (स्वादोः) परन्तु इस पारिवारिक स्वाद का (स्वादीयः) तू अत्यन्त स्वादवाला है (स्वादुना) उस अपने स्वादुरूप से (सं सृज) मुझे सङ्गत कर, परिवार में तेरी उपासना चलती रहे (अदः) उस (सुमधु) सुमधु को (मधुना) पारिवारिक मधु-गृहस्थ सुख के साथ (अभि योधीः) अभिगत कर या मिलादे ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा के सब मनुष्य रक्षणीय हैं, रक्षा चाहनेवाले हैं, वे सब रक्षणीय बन जाते हैं, जबकि अपने कर्त्तव्य कर्म को परमात्मा के प्रति समर्पित कर देते हैं, निष्काम बन जाते हैं, वे ब्रह्मचारी हों या विवाहित-पति पत्नी हों या सन्तानसहित परिवारवाले हों। इस प्रकार संसार में जो लोग सुख स्वाद पाते हैं, उससे भी अधिक सुख स्वादवाला परमात्मा उसकी उपासना यदि इनमें चलती रहे, तो उसका उत्तम स्वादरूप उस सांसारिक स्वाद में मिल जाये, तो सांसारिक जीवन भी स्वादवाला हो जाता है और पतन से बच जाता है ॥३॥