वांछित मन्त्र चुनें

न स सखा॒ यो न ददा॑ति॒ सख्ये॑ सचा॒भुवे॒ सच॑मानाय पि॒त्वः । अपा॑स्मा॒त्प्रेया॒न्न तदोको॑ अस्ति पृ॒णन्त॑म॒न्यमर॑णं चिदिच्छेत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na sa sakhā yo na dadāti sakhye sacābhuve sacamānāya pitvaḥ | apāsmāt preyān na tad oko asti pṛṇantam anyam araṇaṁ cid icchet ||

पद पाठ

न । सः । सखा॑ । यः । न । ददा॑ति । सख्ये॑ । स॒चा॒ऽभुवे॑ । सच॑मानाय । पि॒त्वः । अप॑ । अ॒स्मा॒त् । प्र । इ॒या॒त् । न । तत् । ओकः॑ । अ॒स्ति॒ । पृ॒णन्त॑म् । अ॒न्यम् । अर॑णम् । चि॒त् । इ॒च्छे॒त् ॥ १०.११७.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:117» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:22» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सः-न सखा) वह मित्र नहीं है (यः) जो (सचाभुवे) सहयोगी (सचमानाय) सेवा करनेवाले (सख्ये) मित्र के लिये (पित्वः) अन्न (न ददाति) नहीं देता है (अस्मात्-अप प्र इयात्) इस अन्न देनेवाले के पास से अलग हो जाता है (तत्-ओकः) वह रहने का स्थान (न-अस्ति) नहीं है-वह समागम का स्थान नहीं है, ऐसा मानता हुआ (अन्यं पृणन्तम्) अन्य को तृप्त करते हुए (अरणं चित्) पर मनुष्य को भी (इच्छेत्) चाहता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो मित्र अपने को कहता है, वह सहयोगी सेवा करनेवाले मित्र के लिये नहीं देता है, तो वह मित्र नहीं कहलाता है, वह रहने का स्थान नहीं, ऐसा समझकर उसका मित्र साथ छोड़ देता है। अन्य तृप्त करनेवाले के पास चला जाता है, फिर बिना मित्र के असहाय रह जाता है, इसलिये सम्पन्न जन को अपने मित्र की सहायता करनी चाहिये ॥४॥
बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सः-न सखा) स जनः सखा नास्ति (यः सचाभुवे सचमानाय सख्ये पित्वः-न ददाति) यः सहभाविने सहयोगिने सेवमानाय सख्येऽन्नस्य भागं न ददाति (अस्मात्-अप प्र इयात्) अस्मात् खल्वपगच्छेत् पृथग् भवति (तत्-ओकः-न-अस्ति) तत् समागमस्थानं नास्तीति मत्वा (अन्यं पृणन्तम्-अरणं-चित्-इच्छेत्) अन्यं तर्पयन्तं परं जनमपि खल्विच्छति ॥४॥