पदार्थान्वयभाषाः - (सः-इत्) वह ही मनुष्य (भोजः) अन्यों को भोजन करानेवाला है या पालनेवाला है (यः) जो (गृहवे) अन्न के ग्राहक पात्र के लिये तथा (अन्नकामाय) अन्न इच्छुक के लिये (चरते) विचरण करते हुए आगन्तुक के (कृशाय) क्षीण शरीरवाले के लिये (ददाति) अन्न देता है (अस्मै) इस अन्नदाता के लिये (यामहूतौ) समय की पुकार पर तथा आवश्यकता के अवसर पर (अरं भवति) पर्याप्त हो जाता है (उत) और (अपरीषु) अन्य प्रजाओं में (सखायं-कृणुते) अपने को उनका मित्र बना लेता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - भोजन खानेवाला, खिलानेवाला या पालक वह ही है, उसे ही कहना चाहिये, जो अन्न के ग्राहक, अन्न के चाहनेवाले-विचरण करते हुए आगन्तुक और कृश शरीर के लिये देता है, इस ऐसे दाता के लिये समय की पुकार पर पर्याप्त हो जाता है, मिल जाता है, उसके पास कमी नहीं रहती, दूसरे विरोधी जनों का भी वह मित्र बन जाता है, सब उसकी प्रशंसा करते हैं ॥३॥