पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् राजन् ! आत्मन् ! वा (अर्यः) तू राष्ट्र का स्वामी हुआ या शरीर का स्वामी होता हुआ (श्रवांसि) धन अन्नादि भोग्य वस्तुओं को (वि तनुहि) विस्तृत कर-बढ़ा (अभिमातीः) अभिमन्यमान शत्रुओं को या अभिभावक कामादियों को (ओजः) ओज से स्वबल से (स्थिरा-इव) दृढ़ ही (धन्वनः) धनुषों को विस्तृत कर (अस्मद्र्यक्) हमारे सम्मुख होता हुआ हमें लक्षित करता हुआ (अनिभृष्टः) अन्य से न तापित हुआ (सहोभिः) विविध बलों के द्वारा (वावृधानः) बढ़ता हुआ (तन्वम्) शरीर की भाँति राष्ट्र को या अपने शरीर को (वावृधस्व) बढ़ा ॥६॥
भावार्थभाषाः - राजा को चाहिये कि वह राष्ट्र का स्वामी होकर धन अन्न की वृद्धि करे और शत्रुओं पर दृढ़ शस्त्रों से प्रहार करने के लिये उनका विस्तार करे और प्रजाओं को लक्ष्य करके राष्ट्र को समृद्ध करे एवं आत्मा शरीर का-स्वामी होकर उसके निर्वाह के लिये आवश्यक धन अन्न आदि वस्तुओं का उपार्जन करे और अन्दर के दबानेवाले काम आदि दोषों के दबाने के लिये दृढ़ शिवसङ्कल्पों का विस्तार करे और अपने शरीर को बढ़ावे ॥६॥