पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब जैसे (सूर्येण) सूर्य के साथ (उषसः) उषाधाराएँ प्रभातबेलाएँ (सचन्ते) सङ्गत हो जाती हैं, तब (अस्य केतवः) इसकी रश्मियाँ-किरणें (चित्रम्) विचित्र (राम्) रमणीय शोभा को (अविन्दन्) प्राप्त हो जाती हैं, उसी प्रकार परमात्मा के साथ उसे चाहते हुए स्तोता जन सङ्गत होते हैं, तो विचित्र रमणीय आनन्दमयी आभा को प्राप्त हो जाते हैं (यतः-दिवः-नक्षत्रम्) जैसे दिन में नक्षत्र आकाश में (न-आ ददृशे) सर्वथा दिखाई नहीं देता (पुनः-यत्-नकि) पुनः उस परमात्मा में प्राप्त हुए आत्मा को कोई (नु-अद्धा वेद) तत्त्वतः वास्तव में कोई नहीं जानता ॥७॥
भावार्थभाषाः - जैसे प्रभातवेलाएँ सूर्य के साथ सङ्गत होकर उसकी किरणों को-प्रकाशधाराओं को प्राप्त हो जाती हैं, वैसे ही स्तुति करनेवाले जन परमात्मा से सङ्गत होकर विचित्र रमणीय आनन्दमयी आभा को प्राप्त कर लेते हैं-और जैसे आकाश में दिन के समय नक्षत्र को कोई देख नहीं पाता है, ऐसे ही परमात्मा में उपासना द्वारा प्राप्त हुए उपासक को तत्त्व से कोई नहीं जान पाता ॥७॥