पदार्थान्वयभाषाः - (आ सुष्वयन्ती) पुनः-पुनः कुछ हँसती हुई या सुलाती हुई (यजते) यजनयोग्य (उपाके) परस्पर उपगत-सापेक्ष (दिव्ये योषणे) दिव्य मिश्रण स्वभाववाले (बृहती) दो बड़े भारी (सुरुक्मे) सुरोचन-मधुर रुचिवाले (शुक्रपिशम्-अधि दधाने) शुभ्रवर्णवाली लक्ष्मी को धारण करती हुई (उषासानक्ता) प्रातः और सायं होनेवाले अग्नि देवताओं (योनौ) यज्ञगृह-कुण्ड में (आसदताम्) स्थिर होवो ॥६॥ अध्यात्मदृष्टि से−ध्यानयज्ञ में परमात्मा के आश्रय प्रातः-सायं प्राप्त होनेवाले कुछ हँसते हुए से या अच्छा सुलाते हुए उपासक को प्राप्त होते हो, ये सङ्गमनीय हैं तथा परस्पर सङ्गत दिव्य मिश्रण धर्मवाले शुभ्र शोभा को धारण करते हुए अच्छे रोचमान हुए उपासक के साथ मिश्रण धर्म रखते हुए हो ॥६॥
भावार्थभाषाः - यज्ञकुण्ड में प्रातः-सायं प्रयुक्त हुई दो अग्नियाँ कुछ हँसती हुई-जागृति देती हुई तथा सुलाती हुई सी अच्छी रोचमान गृहलक्ष्मी के समान विराजती हैं। अध्यात्मदृष्टि से−ध्यानयज्ञ में परमात्मा का आश्रय प्रातः-सायं दोनों समय की उपासनाएँ उपासक को प्राप्त होती हैं, वे कुछ हँसाती और सुलाती हुई सी उपासक के साथ मिश्रण धर्मवाली होती हैं ॥६॥