पदार्थान्वयभाषाः - (बृहन्ता-इव) लम्बे दो मनुष्यों की भाँति (गम्भरेषु प्रतिष्ठाम्) गहरे जल में जैसे प्रतिष्ठा स्थिरता को प्राप्त होते हैं, ऐसे तुम अध्यापक उपदेशक गहन विद्या में प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हो (तरते पादा-इव) तैरते हुए मनुष्य के पैर जैसे (गाधं विदाथः) जलान्त जल के निम्न स्थल को जानते हैं, वैसे तुम ज्ञान के अन्तस्थल परमात्मा को जानते हो (कर्णा-इव) दोनों कान (शासुः-अनु-स्मराथः-हि) शासनकर्ता के वचनों को स्मरण करते अर्थात् सुनते ह, ऐसे ही तुम भी शासनकर्ता परमात्मा के उपदेश को सुनते हो (अंशा-इव) व्यापनशील शुक्लभा नीलभा दो किरणों के समान (नः-चित्रम्) हमारे ग्राह्य (अप्नः-भजतम्) कर्म को-सेवाकर्म को सेवन करो ॥९॥
भावार्थभाषाः - समाज के अन्दर अध्यापक उपदेशक गम्भीर जलों में जैसे ऊँचे व्यक्ति प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं, ऐसे विद्याविषयों में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले हों और अन्तिम लक्ष्य ब्रह्म को जाननेवाले हों, सर्वशासक परमात्मा के आदेश का प्रचार करनेवाले हों तथा हमारे सेवाकर्म या उपहारकर्म को सेवन करके हमें उपदेश देते रहें ॥९॥