पदार्थान्वयभाषाः - (यविष्ठ सहस्य-अग्ने) हे युवतम ! तीनों लोकों के साथ अतिशय से संयुक्त होनेवाले ! द्युलोक में सूर्यरूप से तथा अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से वर्त्तमान ! सहस्य ! सह-सामर्थ्य आकर्षणवाले प्रदर्शन में साधु, पृथिवी पर सब कार्यों का अग्रणी अग्नि ! (उभे द्यावापृथिवी) दोनों-द्युलोक पृथिवीलोक को (सदा हि-आ ततन्थ) सर्वदा ही सूर्यरूप हुआ अपने प्रकाश से प्रकाशित करता है (पुत्रः-न मातरा) जैसे कि मातापिताओं को पुत्र अपने गुणाचरणों द्वारा प्रकाशित करता है-प्रसिद्ध करता है। (उशतः अच्छ प्रयाहि) तुझे चाहनेवाले हम लोगों को साधुरूप से प्राप्त हो-होता है (इह देवान्-आवह) यहाँ हमारी ओर अपनी किरणों को प्राप्त करता-प्रेरित करता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - सूर्य महान् अग्नि है, वह तीनों लोकों से संयुक्त होता है, द्युलोक में साक्षात् सूर्यरूप से, अन्तरिक्ष में विद्युद्रूप से और पृथिवी पर अग्निरूप से प्रसिद्ध होता है। सूर्य के प्रकाश का जीवन में उपयोग लेना चाहिये। विद्यासूर्य विद्वान् केवल अपने वंश या स्थान में ही ज्ञान का प्रकाश नही करते, किन्तु राष्ट्रभर में अपितु पृथिवीभर में करते हैं ॥७॥