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श॒केम॑ त्वा स॒मिधं॑ सा॒धया॒ धिय॒स्त्वे दे॒वा ह॒विर॑द॒न्त्याहु॑तम्। त्वमा॑दि॒त्याँ आ व॑ह॒ तान्ह्यु१॒॑श्मस्यग्ने॑ स॒ख्ये मा रि॑षामा व॒यं तव॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śakema tvā samidhaṁ sādhayā dhiyas tve devā havir adanty āhutam | tvam ādityām̐ ā vaha tān hy uśmasy agne sakhye mā riṣāmā vayaṁ tava ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श॒केम॑। त्वा॒। स॒म्ऽइध॑म्। सा॒धय॑। धियः॑। त्वे॒। दे॒वाः। ह॒विः। अ॒द॒न्ति॒। आऽहु॑तम्। त्वम्। आ॒दि॒त्यान्। आ। व॒ह॒। तान्। हि। उ॒श्मसि॑। अग्ने॑। स॒ख्ये। मा। रि॒षा॒म॒। व॒यम्। तव॑ ॥ १.९४.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:94» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:30» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) सब विद्याओं में प्रवीण सभाध्यक्ष ! (वयम्) हम लोग (त्वा) आपका आश्रय लेकर (समिधम्) जिससे अच्छे प्रकार प्रकाश होता है उस क्रिया को कर (शकेम) सकें, (त्वम्) आप हम लोगों की (धियः) बुद्धि वा कर्मों को (साधय) सिद्ध कीजिये, (त्वे) आपके होते (देवाः) विद्वान् लोग (आहुतम्) अच्छे प्रकार स्वीकार किये हुए (हविः) खाने के के योग्य अन्न का (अदन्ति) भोजन करते हैं, इससे आप (आदित्यान्) अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य्य को किये हुए ब्रह्मचारियों को (आ वह) प्राप्त कीजिये, (तान्) उनको (हि) ही हम लोग (उश्मसि) चाहते, हैं ऐसे (तव) आपके (सख्ये) मित्रपन में हम लोग (मा, रिषाम) दुःखी न हों ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्वानों के सङ्ग का आश्रय लेकर विद्या और अग्निकार्यों के सिद्ध करने के लिये सहनशीलता को धारण करते हैं, वे प्रबल विज्ञान और अनेक क्रियाओं से युक्त होकर सुखी होते हैं ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे अग्ने वयं त्वाऽऽश्रित्य समिधं कर्त्तुं शकेम त्वं नो धियः साधय त्वे सति देवा आहुतं हविरदन्त्यतस्त्वमादित्यानावह तान् हि वयमुश्मसीदृशस्य तव सख्ये वयं मा रिषाम ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शकेम) शक्नुयाम (त्वा) त्वाम् (समिधम्) सम्यगिध्यते यया तां क्रियाम् (साधय) अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (धियः) प्रज्ञाः कर्माणि वा (त्वे) त्वयि (देवाः) विद्वांसः (हविः) अत्तुमर्हमन्नम् (अदन्ति) भुञ्जते (आहुतम्) समन्तात्स्वीकृतम् (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः (आदित्यान्) अष्टचत्वारिंशद्वर्षकृतब्रह्मचर्य्यान् (आ) (वह) प्राप्नुहि (तान्) (हि) खलु (उश्मसि) कामयेमहि। (अग्ने, सख्ये, मा, रिषाम, वयं, तव) इति पूर्ववत् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या विदुषां सङ्गमाश्रित्य विद्यामग्निकार्य्याणि च साद्धुं सहनशीलतां दधते ते प्रज्ञाक्रियावन्तो भूत्वा सुखिनो भवन्ति ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विद्वानांच्या संगतीत राहून विद्या व अग्निकार्य सिद्ध करण्यासाठी सहनशीलता धारण करतात ते प्रबल विज्ञान व क्रियांनी युक्त होऊन सुखी होतात. ॥ ३ ॥