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यस्मै॒ त्वं सु॑द्रविणो॒ ददा॑शोऽनागा॒स्त्वम॑दिते स॒र्वता॑ता। यं भ॒द्रेण॒ शव॑सा चो॒दया॑सि प्र॒जाव॑ता॒ राध॑सा॒ ते स्या॑म ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yasmai tvaṁ sudraviṇo dadāśo nāgāstvam adite sarvatātā | yam bhadreṇa śavasā codayāsi prajāvatā rādhasā te syāma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्मै॑। त्वम्। सु॒ऽद्र॒वि॒णः॒। ददा॑शः। अ॒ना॒गाः॒ऽत्वम्। अ॒दि॒ते॒। स॒र्वऽता॑ता। यम्। भ॒द्रेण॑। शव॑सा। चो॒दया॑सि। प्र॒जाऽव॑ता। राध॑सा। ते॒। स्या॒म॒ ॥ १.९४.१५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:94» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:32» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुद्रविणः) अच्छे-अच्छे धनों के देने और (अदिते) विनाश को न प्राप्त होनेवाले जगदीश्वर वा विद्वन् ! जिस कारण (त्वम्) आप (सर्वताता) समस्त व्यवहार में (यस्मै) जिस मनुष्य के लिये (अनागास्त्वम्) निरपराधता को (ददाशः) देते हैं तथा (यम्) जिस मनुष्य को (भद्रेण) सुख करनेवाले (शवसा) शारीरिक, आत्मिक बल और (प्रजावता) जिसमें प्रशंसित पुत्र आदि हैं उस (राधसा) विद्या, सुवर्ण आदि धन से युक्त करके अच्छे व्यवहार में (चोदयासि) लगाते हैं, इससे आपकी वा विद्वानों की शिक्षा में वर्त्तमान जो हम लोग अनेकों प्रकार से यत्न करें (ते) वे हम इस काल में स्थिर (स्याम) हों ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिस मनुष्य में अन्तर्यामी ईश्वर धर्मशीलता को प्रकाशित करता है, वह मनुष्य विद्वानों के सङ्ग में प्रेमी हुआ सब प्रकार के धन और अच्छे-अच्छे गुणों को पाकर सब दिनों सुखी होता है, इससे इस काम को हम लोग भी नित्य करें ॥ १५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे सुद्रविणोऽदिते जगदीश्वर विद्वन् वा यतस्त्वं सर्वताता यस्मा अनागास्त्वं ददाशः। यं भद्रेण शवसा प्रजावता राधसा सह वर्त्तमानां कृत्वा शुभे व्यवहारे चोदयासि प्रेरयेः। तस्मात्तवाज्ञायां विद्वच्छिक्षायां च वर्त्तमाना ये वयं प्रयतेमहि ते वयमेतस्मिन् कर्मणि स्थिराः स्याम ॥ १५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्मै) मनुष्याय (त्वम्) जगदीश्वरो विद्वान् वा (सुद्रविणः) शोभनानि द्रविणांसि यस्मात्तत्सम्बुद्धौ (ददाशः) ददासि। अत्र दाशृधातोर्लेटो मध्यमैकवचने शपः श्लुः। (अनागास्त्वम्) निष्पापत्वम्। इण आगोऽपराधे च। उ० ४। २१९। अत्र नञ्पूर्वादागःशब्दात्त्वे प्रत्ययेऽन्येषामपि दृश्यत इत्युपधाया दीर्घत्वम्। (अदिते) विनाशरहित (सर्वताता) सर्वतातौ सर्वस्मिन् व्यवहारे। अत्र सर्वदेवात्तातिल्। ४। ४। १४२। इति सूत्रेण सर्वशब्दात्स्वार्थे तातिल् प्रत्ययः। सुपां सुलुगिति सप्तम्या डादेशः। (यम्) (भद्रेण) सुखकारकेण (शवसा) शरीरात्मबलेन (चोदयासि) प्रेरयसि (प्रजावता) प्रशस्ताः प्रजा विद्यन्ते यस्मिंस्तेन (राधसा) विद्यासुवर्णादिधनेन सह (ते) त्वदाज्ञायां वर्त्तमानाः (स्याम) भवेम ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। यस्मिन्मनुष्येऽन्तर्यामीश्वरः पापाकरणत्वं प्रकाशयति स मनुष्यो विद्वत्सङ्गप्रीतिः सन् सर्वविधं धनं शुभान् गुणांश्च प्राप्य सर्वदा सुखी भवति तस्मादेतत्कृत्यं वयमपि नित्यं कुर्याम ॥ १५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्या माणसाच्या अंतःकरणात ईश्वर धर्मशीलता प्रकट करतो त्याला विद्वानांची संगती आवडते व त्याला सर्व प्रकारचे धन मिळते. त्याच्या अंगी चांगल्या गुणांचा उद्भव होऊन तो सदैव सुखी होतो. त्यामुळे हे कार्य आम्हीही सदैव करावे. ॥ १५ ॥