सोम॑ रार॒न्धि नो॑ हृ॒दि गावो॒ न यव॑से॒ष्वा। मर्य॑ इव॒ स्व ओ॒क्ये॑ ॥
soma rārandhi no hṛdi gāvo na yavaseṣv ā | marya iva sva okye ||
सोम॑। रा॒र॒न्धि। नः॒। हृ॒दि। गावः॑। न। यव॑सेषु। आ। मर्यः॑ऽइव स्वे। ओ॒क्ये॑ ॥ १.९१.१३
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
हे सोम यतस्त्वमयं च नो हृदि नेव यवसेषु गावो स्व ओक्ये मर्यइवारारन्धि समन्ताद्रमस्व रमते वा तस्मात्सर्वैः सदा सेवनीयः ॥ १३ ॥