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सं चो॑दय चि॒त्रम॒र्वाग्राध॑ इन्द्र॒ वरे॑ण्यम्। अस॒दित्ते॑ वि॒भु प्र॒भु॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

saṁ codaya citram arvāg rādha indra vareṇyam | asad it te vibhu prabhu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। चो॒द॒य॒। चि॒त्रम्। अ॒र्वाक्। राधः॑। इ॒न्द्र॒। वरे॑ण्यम्। अस॑त्। इत्। ते॒। वि॒ऽभु। प्र॒ऽभु॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:9» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

ईश्वर की उपासना से क्या लाभ होता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) करुणामय सब सुखों के देनेवाले परमेश्वर ! (ते) आपकी सृष्टि में जो-जो (वरेण्यम्) अतिश्रेष्ठ (विभु) उत्तम-उत्तम पदार्थों से पूर्ण (प्रभु) बड़े-बड़े प्रभावों का हेतु (चित्रम्) जिससे श्रेष्ठ विद्या चक्रवर्त्ति राज्य से सिद्ध होनेवाला मणि सुवर्ण और हाथी आदि अच्छे-अच्छे अद्भुत पदार्थ होते हैं, ऐसा (राधः) धन (असत्) हो, सो-सो कृपा करके हम लोगों के लिये (सञ्चोदय) प्रेरणा करके प्राप्त कीजिये॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को ईश्वर के अनुग्रह और अपने पुरुषार्थ से आत्मा और शरीर के सुख के लिये विद्या और ऐश्वर्य्य की प्राप्ति वा उनकी रक्षा और उन्नति तथा सत्यमार्ग वा उत्तम दानादि धर्म अच्छी प्रकार से सदैव सेवन करना चाहिये, जिससे दारिद्र्य और आलस्य से उत्पन्न होनेवाले दुःखों का नाश होकर अच्छे-अच्छे भोग करने योग्य पदार्थों की वृद्धि होती रहे॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तस्योपासनेन किं लभ्यते, इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे इन्द्र ! ते तव सृष्टौ यद्यद्वरेण्यं विभु प्रभु चित्रं राधोऽसत् तत्तत्कृपयाऽर्वागस्मदाभिमुख्याय सञ्चोदय॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सम्) सम्यगर्थे। समित्येकीभावं प्राह। (निरु०१.३) (चोदय) प्रेरय प्रापय (चित्रम्) चक्रवर्त्तिराज्यश्रिया विद्यामणिसुवर्णहस्त्यश्वादियोगेनाद्भुतम् (अर्वाक्) प्राप्त्यनन्तरमाभिमुख्येनानन्दकारकम् (राधः) राध्नुवन्ति सुखानि येन तद्धनम्। राध इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (इन्द्र) दयामयसर्वसुखसाधनप्रदेश्वर ! (वरेण्यम्) वर्त्तुमर्हमतिश्रेष्ठम्। वृञ एण्यः। (उणा०३.९९) अनेन ‘वृञ् वरणे’ इत्यस्मादेण्यप्रत्ययः। (असत्) भवेत्। अस धातोर्लेट्प्रयोगः। (इत्) एव (ते) तव (विभु) बहुसुखव्यापकम् (प्रभु) उत्तमप्रभावकारकम्॥५॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरीश्वरानुग्रहेण स्वपुरुषार्थेन च सर्वस्यात्मशरीरसुखाय विद्यैश्वर्य्ययोः प्राप्तिरक्षणोन्नतिसन्मार्गदानानि सदैव संसेव्यानि, यतो दारिद्र्यालस्यप्रभावदुःखाभावेन दिव्या भोगाः सततं वर्धेरन्निति॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी ईश्वराचा अनुग्रह व आपला पुरुषार्थ याद्वारे आत्मा व शरीराच्या सुखासाठी विद्या व ऐश्वर्य प्राप्त करावे आणि त्यांचे रक्षण, वृद्धी, सत्यमार्ग व उत्तम दानधर्माचा स्वीकार करावा. त्यामुळे दारिद्र्य व आळशीपणामुळे उत्पन्न होणाऱ्या दुःखाचा नाश होऊन चांगल्या भोग्य पदार्थांची वृद्धी व्हावी. ॥ ५ ॥