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नकि॒ष्ट्वद्र॒थीत॑रो॒ हरी॒ यदि॑न्द्र॒ यच्छ॑से। नकि॒ष्ट्वानु॑ म॒ज्मना॒ नकिः॒ स्वश्व॑ आनशे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nakiṣ ṭvad rathītaro harī yad indra yacchase | nakiṣ ṭvānu majmanā nakiḥ svaśva ānaśe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नकिः॑। त्वत्। र॒थीत॑रः। हरी॑। यत्। इ॒न्द्र॒। यच्छ॑से। नकिः॑। त्वा॒। अनु॑। म॒ज्मना॑। नकिः॑। सु॒ऽअश्वः॑। आ॒न॒शे॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:84» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:6» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सेना के धारण करनेहारे सेनापति ! (यत्) जो तू (रथीतरः) अतिशय करके रथयुक्त योद्धा है सो (हरी) अग्न्यादि वा घोड़ों को (नकिः) (यच्छसे) क्या रथ में नहीं देता अर्थात् युक्त नहीं करता? क्या (त्वा) तुझको (मज्मना) बल से कोई भी (नकिः) (अन्वानशे) व्याप्त नहीं हो सकता? क्या (त्वत्) तुझसे अधिक कोई भी (स्वश्वः) अच्छे घोड़ोंवाला (नकिः) नहीं है? इससे तू सब अङ्गों से युक्त हो ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम सेनापति को इस प्रकार उपदेश करो कि क्या तू सब से बड़ा है? क्या तेरे तुल्य कोई भी नहीं है? क्या कोई तेरे जीतने को भी समर्थ नहीं है? इससे तू निरभिमानता से सावधान होकर वर्त्ता कर ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यस्त्वं रथीतरस्स हरी नकिर्यच्छसे त्वा त्वां मज्मना कश्चित् किं नकिरन्वानशे त्वदधिकः कश्चित् स्वश्वः किं नकिर्विद्यते तस्मात् त्व सर्वैरङ्गैर्युक्तो भव ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नकिः) प्रश्ने (त्वत्) (रथीतरः) अतिशयेन रथयुक्तो योद्धा (हरी) अश्वौ (यत्) यः (इन्द्र) सेनेश (यच्छसे) ददासि (नकिः) (त्वा) त्वाम् (अनु) आनुकूल्ये (मज्मना) बलेन (नकिः) न किल (स्वश्वः) शोभना अश्वा यस्य सः (आनशे) व्याप्नोति ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यूयं सेनेशमेवमुपदिशत किं त्वं सर्वेभ्योऽधिकः? किं त्वया सदृश एव नास्ति? किं कश्चिदपि त्वां विजेतुं न शक्नोति? तस्मात् त्वया समाहितेन वर्त्तितव्यमिति ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! तुम्ही सेनापतीला असा उपदेश करा (प्रश्न विचारा) की तू सर्वात मोठा आहेस काय? तुझी तुलना कुणाशी होऊ शकत नाही काय? तुला जिंकण्यास कुणी समर्थ होऊ शकत नाही काय? त्यासाठी अभिमान न करता सावधानीने वाग. ॥ ६ ॥