वांछित मन्त्र चुनें

मा ते॒ राधां॑सि॒ मा त॑ ऊ॒तयो॑ वसो॒ऽस्मान्कदा॑ च॒ना द॑भन्। विश्वा॑ च न उपमिमी॒हि मा॑नुष॒ वसू॑नि चर्ष॒णिभ्य॒ आ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā te rādhāṁsi mā ta ūtayo vaso smān kadā canā dabhan | viśvā ca na upamimīhi mānuṣa vasūni carṣaṇibhya ā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। ते॒। राधां॑सि। मा। ते॒। ऊ॒तयः॑। वसो॒ इति॑। अ॒स्मान्। कदा॑। च॒न। द॒भ॒न्। विश्वा॑। च॒। नः॒। उ॒प॒ऽमि॒मी॒हि। मा॒नु॒ष॒। वसू॑नि। च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑। आ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:84» मन्त्र:20 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:8» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:20


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वसो) सुख में वास करनेहारे ! (ते) आपके (राधांसि) धन (अस्मान्) हमको (कदाचन) कभी भी (मा दभन्) दुःखदायक न हों (ते) तेरी (ऊतयः) रक्षा (अस्मान्) हमको (मा) मत दुःखदायी होवे। हे (मानुष) मनुष्यस्वभावयुक्त ! जैसे तू (चर्षणिभ्यः) उत्तम मनुष्यों को (विश्वा) विज्ञान आदि सब प्रकार के (वसूनि) धनों को देता है, वैसे हमको भी दे (च) और (नः) हमको विद्वान् धार्मिकों की (आ) सब ओर से (उपमिमीहि) उपमा को प्राप्त कर ॥ २० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही धार्मिक मनुष्य हैं जिनका शरीर, मन और धन सबको सुखी करे, वे ही प्रशंसा के योग्य हैं जो जगत् के उपकार के लिये प्रयत्न करते हैं ॥ २० ॥ इस सूक्त में सेनापति के गुण-वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की संगति पूर्व सूक्तार्थ के संग जाननी चाहिये ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे वसो ! ते राधांस्यस्मान् कदाचन मा दभन्। त ऊतयोऽस्मान् मा हिंसन्तु। हे मानुष ! यथा त्वं चर्षणिभ्यो विश्वा वसूनि ददासि तथा च नोऽस्मान् उपमिमीहि ॥ २० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) निषेधे (ते) (राधांसि) धनानि (मा) (ते) (ऊतयः) रक्षणादीनि कर्माणि (वसो) सुखेषु वासयितः (अस्मान्) (कदा) (चन) कस्मिन्नपि काले (दभन्) हिंस्युः (विश्वा) सर्वाणि (च) समुच्चये (नः) अस्मान् (उपमिमीहि) श्रेष्ठैरुपमितान् कुरु (मानुष) मनुष्यस्वभावयुक्त (वसूनि) विज्ञानादिधनानि (चर्षणिभ्यः) उत्तमेभ्यो मनुष्येभ्यः (आ) अभितः ॥ २० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव धार्मिका मनुष्या सन्ति येषां तनुर्मनो धनानि च सर्वान् सुखयेयुः। त एव प्रशंसिता भवन्ति ये च जगदुपकाराय प्रयतन्त इति ॥ २० ॥ अस्मिन् सूक्ते सेनापतिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. तीच धार्मिक माणसे आहेत. ज्यांचे शरीर, मन, धन सर्वांना सुख देते तीच माणसे प्रशंसा करण्यायोग्य आहेत. जी जगावर उपकार करण्याचा प्रयत्न करतात.