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क ई॑षते तु॒ज्यते॒ को बि॑भाय॒ को मं॑सते॒ सन्त॒मिन्द्रं॒ को अन्ति॑। कस्तो॒काय॒ क इभा॑यो॒त रा॒येऽधि॑ ब्रवत्त॒न्वे॒३॒॑ को जना॑य ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ka īṣate tujyate ko bibhāya ko maṁsate santam indraṁ ko anti | kas tokāya ka ibhāyota rāye dhi bravat tanve ko janāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कः। ई॒ष॒ते॒। तु॒ज्यते॑। कः। बि॒भा॒य॒। कः। मं॒स॒ते॒। सन्त॑म्। इन्द्र॑म्। कः। अन्ति॑। कः। तो॒काय॑। कः। इभा॑य। उ॒त। रा॒ये। अधि॑। ब्र॒व॒त्। त॒न्वे॑। कः। जना॑य ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:84» मन्त्र:17 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में प्रश्नोत्तर से राजधर्म का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेनापते ! सेनाओं में स्थित भृत्यों में (कः) कौन शत्रुओं को (ईषते) मारता है। (कः) कौन शत्रुओं से (तुज्यते) मारा जाता है (कः) कौन युद्ध में (बिभाय) भय को प्राप्त होता है (कः) कौन (सन्तम्) राजधर्म में वर्त्तमान (इन्द्रम्) उत्तम ऐश्वर्य के दाता को (मंसते) जानता है (कः) कौन (तोकाय) सन्तानों के (अन्ति) समीप में रहता है (कः) कौन (इभाय) हाथी के उत्तम होने के लिये शिक्षा करता है (उत) और (कः) कौन (राये) बहुत धन करने के लिये वर्तता है? और कौन (तन्वे) शरीर और (जनाय) मनुष्यों के लिये (अधिब्रवत्) आज्ञा देता है? इसका उत्तर आप दीजिये ॥ १७ ॥
भावार्थभाषाः - जो अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य, उत्तम शिक्षा और अन्य शुभ गुणों से युक्त होते हैं, वे विजयादि कर्मों को कर सकते हैं। जैसे राजा सेनापति को सब अपनी सेना के नौकरों की व्यवस्था को पूछे, वैसे सेनापति भी अपने अधीन छोटे सेनापतियों को स्वयं सब वार्त्ता पूछे। जैसे राजा सेनापति को आज्ञा देवे, वैसे (सेनापति स्वयं) सेना के प्रधान पुरुषों को करने योग्य कर्म की आज्ञा देवे ॥ १७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ प्रश्नोत्तरै राजधर्ममुपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे सेनापते ! सेनास्थभृत्यानां मध्ये कः शत्रूनीषते? कः शत्रुभिस्तुज्यते? को युद्धे बिभाय? कः सन्तमिन्द्रं मंसते? कस्तोकायान्ति वर्त्तते? क इभाय शिक्षते? उतापि को राये प्रवर्त्तेत? कस्तन्वे जनाय चाधिब्रवदिति? त्वं ब्रूहि ॥ १७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कः) कश्चित् (ईषते) युद्धमिच्छेत् (तुज्यते) हिंस्यते (कः) (बिभाय) बिभेति (कः) (मंसते) मन्यते (सन्तम्) राजव्यवहारेषु वर्त्तमानम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यकारकम् (कः) (अन्ति) समीपे (कः) (तोकाय) सन्तानाय (कः) (इभाय) हस्तिने (उत) अपि (राये) उत्तमश्रिये (अधि) अध्यक्षतया (ब्रवत्) ब्रूयात् (तन्वे) शरीराय (कः) (जनाय) प्रधानाय ॥ १७ ॥
भावार्थभाषाः - ये दीर्घब्रह्मचर्येण सुशिक्षयान्यैः शुभैर्गुणैर्युक्तास्ते सर्वाण्येतानि कर्म्माणि कर्त्तुं शक्नुवन्ति, नेतरे। यथा राजा सेनापतिं प्रति सर्वां स्वसेनाभृत्यव्यवस्थां पृच्छेत् तथा सेनाध्यक्षः स्वाधीनान्नध्यक्षान् स्वयमेतां पृच्छेत्। यथा राजा सेनापतिमाज्ञापयेत् तथा स्वयं सेनाध्यक्षान्नाज्ञापयेत् ॥ १७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे अठ्ठेचाळीस वर्षांपर्यंत ब्रह्मचर्य, उत्तम शिक्षण व इतर शुभ गुणांनी युक्त असतात. ते विजय प्राप्त करू शकतात. जसा राजा सेनापतीला सेनेतील लोकांच्या व्यवस्थेबाबत विचारतो तसे सेनापतीनेही आपल्या अधीन असलेल्या छोट्या सेनापतींना स्वतः विचारावे. जसा राजा सेनापतीला आज्ञा देतो तशी सेनापतीने सेनेतील मुख्य लोकांना योग्य कार्य करण्याची आज्ञा द्यावी. ॥ १७ ॥