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यु॒नज्मि॑ ते॒ ब्रह्म॑णा के॒शिना॒ हरी॒ उप॒ प्र या॑हि दधि॒षे गभ॑स्त्योः। उत्त्वा॑ सु॒तासो॑ रभ॒सा अ॑मन्दिषुः पूष॒ण्वान्व॑ज्रि॒न्त्समु॒ पत्न्या॑मदः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yunajmi te brahmaṇā keśinā harī upa pra yāhi dadhiṣe gabhastyoḥ | ut tvā sutāso rabhasā amandiṣuḥ pūṣaṇvān vajrin sam u patnyāmadaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒नज्मि॑। ते॒। ब्रह्म॑णा। के॒शिना॑। हरी॒ इति॑। उप॑। प्र। या॒हि॒। द॒धि॒षे। गभ॑स्त्योः। उत्। त्वा॒। सु॒तासः॑। र॒भ॒साः। अ॒म॒न्दि॒षुः॒। पू॒ष॒ण्ऽवान्। व॒ज्रि॒न्। सम्। ऊँ॒ इति॑। पत्न्या॑। अ॒म॒दः॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:82» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:3» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसके भृत्य क्या करें और उस रथ से वह क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वज्रिन्) उत्तम शस्त्रयुक्त सेनाध्यक्ष ! जैसे मैं (ते) तेरे (ब्रह्मणा) अन्नादि से युक्त नौका रथ में (केशिना) सूर्य की किरण के समान प्रकाशमान (हरी) घोड़ों को (युनज्मि) जोड़ता हूँ, जिसमें बैठ के तू (गभस्त्योः) हाथों में घोड़ों की रस्सी को (दधिषे) धारण करता है, उस रथ से (उप प्र याहि) अभीष्ट स्थानों को जा। जैसे बलवेगादि युक्त (सुतासः) सुशिक्षित (भृत्याः) नौकर लोग जिस (त्वा) तुझको (उ) अच्छे प्रकार (उदमन्दिषुः) आनन्दित करें, वैसे इनको तू भी आनन्दित कर और (पूषण्वान्) शत्रुओं की शक्तियों को रोकनेहारा तू अपनी (पत्न्या) स्त्री के साथ (सममदः) अच्छे प्रकार आनन्द को प्राप्त हो ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि जो अश्वादि की शिक्षा सेवा करनेहारे और उनको सवारियों में चलानेवाले भृत्य हों, वे अच्छी शिक्षायुक्त हों और अपनी स्त्री आदि को भी अपने से प्रसन्न रख के आप भी उनमें यथावत् प्रीति करे। सर्वदा युक्त होके सुपरीक्षित स्त्री आदि में धर्म कार्यों को साधा करें ॥ ६ ॥ ।इस सूक्त में सेनापति और ईश्वर के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्भृत्याः किं कुर्य्युस्तेन स किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे वज्रिन् सेनाध्यक्ष ! यथाऽहं ते तव ब्रह्मणा युक्ते रथे केशिना हरी युनज्मि यत्र स्थित्वा त्वं गभस्त्योरश्वरशनां दधिषे उपप्रयाहि यथा रभसाः सुतासः सुशिक्षिता भृत्या यं त्वा उ उदमन्दिषुरानन्दयेयुस्तथैतानानन्दय। पूषण्वान् स्वकीयया पत्न्या सह सममदः सम्यगानन्द ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युनज्मि) युक्तौ करोमि (ते) तव (ब्रह्मणा) अनादिना सह (केशिना) सूर्यरश्मिवत्प्रशस्तकेशयुक्तौ (हरी) बलिष्ठावश्वौ (उप) सामीप्ये (प्र) (याहि) गच्छाऽऽगच्छ (दधिषे) धरसि (गभस्त्योः) हस्तयोः। गभस्ती इति बाहुनामसु पठितम्। (निघं०२.५) (उत्) उत्कृष्टे (त्वा) त्वाम् (सुतासः) विद्याशिक्षाभ्यामुत्तमाः सम्पादिताः (रभसाः) वेगयुक्ताः (अमन्दिषुः) हर्षयन्तु (पूषण्वान्) अरिशक्तिनिरोधकैर्वीरैः सह (वज्रिन्) प्रशस्तास्त्रयुक्त (सम्) सम्यक् (उ) वितर्के (पत्न्या) युद्धादौ सङ्गमनीये यज्ञे संयुक्तया स्त्रिया (अमदः) आनन्द ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्येऽश्वादिसंयोजका भृत्यास्ते सुशिक्षिता एव रक्षणीयाः स्वस्त्र्यादयोऽपि स्वानुरक्ता एव करणीयाः स्वयमप्येतेष्वनुरक्तास्तिष्ठेयुः सर्वदायुक्ताः सन्तः सुपरीक्षितैरेतैर्धर्म्याणि कार्याणि संसाधयेयुः ॥ अत्र सेनापतिरीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - अश्व इत्यादींना प्रशिक्षण देऊन त्यांची सेवा करणारे व त्यांच्यावर स्वार होणारे सेवक चांगले प्रशिक्षित असावेत. तसेच सेनाध्यक्षांनी आपल्या पत्नीलाही प्रसन्न ठेवून त्यांच्यावर प्रेम करावे. सदैव सुपरीक्षित पत्नीला धर्मकार्यात सम्मिलित करून घ्यावे. ॥ ६ ॥