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यु॒क्तस्ते॑ अस्तु॒ दक्षि॑ण उ॒त स॒व्यः श॑तक्रतो। तेन॑ जा॒यामुप॑ प्रि॒यां म॑न्दा॒नो या॒ह्यन्ध॑सो॒ योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuktas te astu dakṣiṇa uta savyaḥ śatakrato | tena jāyām upa priyām mandāno yāhy andhaso yojā nv indra te harī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒क्तः। ते॒। अ॒स्तु॒। दक्षि॑णः। उ॒त। स॒व्यः। श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। तेन॑। जा॒याम्। उप॑। प्रि॒याम्। म॒न्दा॒नः। या॒हि॒। अन्ध॑सः। योज॑। नु। इ॒न्द्र॒। ते॒। हरी॒ इति॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:82» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:3» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसे करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सबको सुख देनेहारे (शतक्रतो) असंख्य उद्यम बुद्धि और क्रियाओं से युक्त ! (ते) आपके जो सुशिक्षित (हरी) घोड़े हैं, उनको रथ में तू (नु योज) शीघ्र युक्त कर, जिस (ते) तेरे रथ के (एकः) एक घोड़ा (दक्षिणः) दाहिने (उत) और दूसरा (सव्यः) बाईं ओर (अस्तु) हो (तेन) उस रथ पर बैठ शत्रुओं को जीत के (प्रियाम्) अतिप्रिय (जायाम्) स्त्री को साथ बैठा (मन्दानः) आप प्रसन्न और उसको प्रसन्न करता हुआ (अन्धसः) अन्नादि सामग्री के (उप याहि) समीपस्थ होके तुम दोनों शत्रुओं को जीतने के अर्थ जाया करो ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - राजा को योग्य है कि अपनी राणी के साथ अच्छे सुशिक्षित घोड़ों से युक्त रथ में बैठ के युद्ध में विजय और व्यवहार में आनन्द को प्राप्त होवें। जहाँ-जहाँ युद्ध में वा भ्रमण के लिये जावें, वहाँ-वहाँ उत्तम कारीगरों से बनाये सुन्दर रथ में स्त्री के सहित स्थित हो के ही जावें ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कथं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! शतक्रतो तव यौ सुशिक्षितौ हरी स्त एतौ रथे त्वं नु योज, यस्य ते तव रथस्यैकोऽश्वो दक्षिणपार्श्वस्थः युक्त उतापि द्वितीयः सव्यो युक्तोऽस्तु तेन रथेनाऽरीन् जित्वा प्रियां जायां मन्दानस्त्वमन्धस उपयाहि प्राप्नुहि द्वौ मिलित्वा शत्रुविजयार्थं गच्छेताम् ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युक्तः) कृतयोजनः (ते) तव (अस्तु) भवतु (दक्षिणः) एको दक्षिणपार्श्वस्थः (उत) अपि (सव्यः) द्वितीयो वामपार्श्वस्थः (शतक्रतो) शतधाक्रतुः प्रज्ञाकर्म वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (तेन) रथेन (जायाम्) स्वस्त्रियम् (उप) समीपे (प्रियाम्) प्रीतिकारिणीम् (मन्दानः) आनन्दयन् (याहि) गच्छ प्राप्नुहि वा (अन्धसः) अन्नादेः (योज) (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) (ते) (हरी) ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - राज्ञा स्वपत्न्या सह सुशिक्षितैरश्वैर्युक्ते याने स्थित्वा युद्धे विजयो व्यवहारे आनन्दः प्राप्तव्यः। यत्र यत्र युद्धे क्वचिद् भ्रमणार्थं वा गच्छेत्, तत्र तत्र सुशिल्पिरचिते दृढे रथे स्त्रिया सहितः स्थित्वैव यायात् ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजाने आपल्या राणीबरोबर चांगल्या प्रशिक्षित घोड्याच्या रथात बसून युद्धात विजय मिळवावा व व्यवहारात आनंद भोगावा. जेथे जेथे युद्धात किंवा भ्रमण करण्यासाठी जावयाचे असेल तेथे तेथे उत्तम कारागिरांनी बनविलेल्या सुंदर रथात बसून पत्नीसह भ्रमण करावे. ॥ ५ ॥