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सु॒सं॒दृशं॑ त्वा व॒यं मघ॑वन्वन्दिषी॒महि॑। प्र नू॒नं पू॒र्णव॑न्धुरः स्तु॒तो या॑हि॒ वशाँ॒ अनु॒ योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

susaṁdṛśaṁ tvā vayam maghavan vandiṣīmahi | pra nūnam pūrṇavandhuraḥ stuto yāhi vaśām̐ anu yojā nv indra te harī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒ऽस॒न्दृश॑म्। त्वा॒। व॒यम्। मघ॑ऽवन्। व॒न्दि॒षी॒महि॑। प्र। नू॒नम्। पू॒र्णऽव॑न्धुरः। स्तु॒तः। या॒हि॒। वशा॑न्। अनु॑। योज॑। नु। इ॒न्द्र॒। ते॒। हरी॒ इति॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:82» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:3» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) परमपूजित धनयुक्त (इन्द्र) सुखप्रद ! जैसे (वयम्) हम (सुसंदृशम्) कल्याणदृष्टियुक्त (त्वा) आपको (वन्दिषीमहि) प्रशंसित करें, वैसे हमसे सहित होके (पूर्णवन्धुरः) समस्त सत्य प्रबन्ध और प्रेमयुक्त (स्तुतः) प्रशंसा को प्राप्त होके आप जो प्रजा के शत्रु हैं, उन को (नु) शीघ्र (वशान्) वश में करो, जो (ते) आपके (हरी) सूर्य के धारणाकर्षणादिगुणवत् सुशिक्षित अश्व हैं, उनको (अनुयोज) युक्त करो, विजय के लिये (नूनम्) निश्चय करके (प्रयाहि) अच्छे प्रकार जाया करो ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब मनुष्य सबके द्रष्टा परमेश्वर की स्तुति करनेहारे सभापति का आश्रय लेते हैं, तब इन शत्रुओं का शीघ्र निग्रह कर सकते हैं ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मघवन्निन्द्र ! यथा वयं सुसंदृशं त्वा वन्दिषीमहि तथाऽस्माभिर्नूनं पूर्णबन्धुरः स्तुतः संस्त्वं येऽस्माकं शत्रवस्तान्नु वशान् कुरु यौ ते तव हरी स्तस्तावनु योज विजयाय प्रयाहि ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुसंदृशम्) एकीभावेन सर्वकर्मणां द्रष्टारम् (त्वा) त्वां सेनाद्यध्यक्षं वा (वयम्) (मघवन्) प्रशस्तगुणधनप्रापक (वन्दिषीमहि) नमस्कुर्मः (प्र) प्रकृष्टे (नूनम्) निश्चये (पूर्णवन्धुरः) पूर्णैः सत्यैः प्रेमबन्धनैर्युक्तः (स्तुतः) प्रशंसितः सन् (याहि) प्राप्नुहि (वशान्) शमदमादियुक्तान् धार्मिकान् जनान् (अनु) अर्वाक् (योज) योजय (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) दुःखविदारक (ते) (हरी) ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा मनुष्याः सर्वद्रष्टः परमेश्वरस्य स्तोतारं सभेशमाश्रयन्ति तदैतानरीन् सद्यो निगृह्णन्ति ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा माणसे सर्वांचा द्रष्टा असलेल्या परमेश्वराची स्तुती करणाऱ्या सभापतीचा आश्रय घेतात तेव्हा शत्रूंना तात्काळ रोखू शकतात. ॥ ३ ॥