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यः कु॒क्षिः सो॑म॒पात॑मः समु॒द्रइ॑व॒ पिन्व॑ते। उ॒र्वीरापो॒ न का॒कुदः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yaḥ kukṣiḥ somapātamaḥ samudra iva pinvate | urvīr āpo na kākudaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। कु॒क्षिः। सो॒म॒ऽपात॑मः। स॒मु॒द्रःऽइ॑व। पिन्व॑ते। उ॒र्वीः। आपः॑। न। का॒कुदः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:8» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:16» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से सूर्य्यलोक के गुणों का व्याख्यान किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (समुद्र इव) जैसे समुद्र को जल (आपो न काकुदः) शब्दों के उच्चारण आदि व्यवहारों के करानेवाले प्राण वाणी का सेवन करते हैं, वैसे (कुक्षिः) सब पदार्थों से रस को खींचनेवाला तथा (सोमपातमः) सोम अर्थात् संसार के पदार्थों का रक्षक जो सूर्य्य है, वह (उर्वीः) सब पृथिवी को सेवन वा सेचन करता है॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। ईश्वर ने जैसे जल की स्थिति और वृष्टि का हेतु समुद्र तथा वाणी के व्यवहार का हेतु प्राण बनाया है, वैसे ही सूर्य्यलोक वर्षा होने, पृथिवी के खींचने, प्रकाश और रसविभाग करने का हेतु बनाया है, इसी से सब प्राणियों के अनेक व्यवहार सिद्ध होते हैं॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेन्द्रशब्देन सूर्य्यलोकगुणा उपदिश्यन्ते।

अन्वय:

यः कुक्षिः सोमपातमः सूर्य्यलोकः समुद्र इव जलानीवापः काकुदो न प्राणा वायवो वाचः शब्दसमूहमिवोर्वीः पृथिवीः पिन्वते॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) सूर्य्यलोकः (कुक्षिः) कुष्णाति निष्कर्षति सर्वपदार्थेभ्यो रसं यः। अत्र प्लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः। (उणा०३.१५५) अनेन ‘कुष’ धातोः क्सिः प्रत्ययः। (सोमपातमः) यः सोमान्पदार्थान् किरणैः पाति सोऽतिशयितः (समुद्र इव) समुद्रवन्त्यापो यस्मिंस्तद्वत् (पिन्वते) सिञ्चति सेवते वा (उर्वीः) बह्वीः पृथिवीः। उर्वीति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (आपः) जलानि, वाऽऽप्नुवन्ति शब्दोच्चारणादिव्यवहारान् याभिस्ता आपः प्राणः। आप इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) आप इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.३) आभ्यां प्रमाणाभ्यामप्शब्देनात्रोदकानि सर्वचेष्टाप्राप्तिनिमित्तत्वात् प्राणाश्च गृह्यन्ते। (न) उपमार्थे (काकुदः) वाचः शब्दसमूहः। काकुदिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११)॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारौ स्तः। इन्द्रेणेश्वरेण यथा जलस्थितिवृष्टिहेतुः समुद्रो वाग्व्यवहारहेतुः प्राणश्च रचितस्तथैव पृथिव्याः प्रकाशाकर्षणादे रसविभागस्य च हेतुः सूर्य्यलोको निर्मितः। एताभ्यां सर्वप्राणिनामनेके व्यवहाराः सिध्यन्तीति॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. ईश्वराने जशी जलाची स्थिती व वृष्टीचा हेतू समुद्र तसेच वाणीच्या व्यवहारासाठी प्राण बनविलेले आहेत व सूर्यलोक पर्जन्यासाठी, पृथ्वीच्या आकर्षणासाठी, प्रकाश देण्यासाठी व रसविभाग करण्यासाठी बनविलेला आहे. यामुळे सर्व प्राण्यांचे अनेक व्यवहार सिद्ध होतात. ॥ ७ ॥