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त्वं जा॒मिर्जना॑ना॒मग्ने॑ मि॒त्रो अ॑सि प्रि॒यः। सखा॒ सखि॑भ्य॒ ईड्यः॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ jāmir janānām agne mitro asi priyaḥ | sakhā sakhibhya īḍyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। जा॒मिः। जना॑नाम्। अग्ने॑। मि॒त्रः। अ॒सि॒। प्रि॒यः। सखा॑। सखि॑ऽभ्यः। ईड्यः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:75» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:23» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह विद्वान् कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) पण्डित ! जिस कारण (जनानाम्) मनुष्यों को (जामिः) जल के तुल्य सुख देनेवाले (मित्रः) सबके मित्र (प्रियः) कामना को पूर्ण करनेवाले योग्य विद्वान् (त्वम्) आप (सखिभ्यः) सबके मित्र मनुष्यों को (ईड्यः) स्तुति करने योग्य (सखा) मित्र हो, इसीसे सबको सेवने योग्य विद्वान् (असि) हो ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उस परमेश्वर और उस विद्वान् मनुष्य की सेवा क्यों नहीं करनी चाहिये कि जो संसार में विद्यादि शुभ गुण और सबको सुख देता है ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने विद्वन् ! यतस्त्वं जनानां जामिर्मित्रः प्रिय ईड्यः सन् सखिभ्यः सखाऽसि तस्मात् सर्वैस्सत्कर्त्तव्योऽसि ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) सर्वोपकारी (जामिः) उदकमिव शान्तिप्रदः। जामिरित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (जनानाम्) मनुष्याणाम् (अग्ने) अत्यन्तविद्यायोगेनानूचान (मित्रः) सर्वसुहृत् (असि) वर्त्तते (प्रियः) कामयमानः प्रियकारी (सखा) सुखप्रदः (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः (ईड्यः) स्तोतुमर्हः ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्यः सर्वदा मित्रो भूत्वा सर्वेभ्यो विद्यादिशुभगुणान् सुखानि च ददाति, स कथं न सेवनीयः ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी नेहमी मित्र बनून सर्वांना विद्या शुभ गुण सुख देणाऱ्यांची सेवा का करू नये?