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उ॒त ब्रु॑वन्तु ज॒न्तव॒ उद॒ग्निर्वृ॑त्र॒हाज॑नि। ध॒नं॒ज॒यो रणे॑रणे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta bruvantu jantava ud agnir vṛtrahājani | dhanaṁjayo raṇe-raṇe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। ब्रु॒व॒न्तु॒। ज॒न्तवः॑। उत्। अ॒ग्निः। वृ॒त्र॒ऽहा। अ॒ज॒नि॒। ध॒न॒म्ऽज॒यः। रणे॑ऽरणे ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:74» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:21» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:13» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (रणेरणे) युद्ध-युद्ध में (धनञ्जयः) धन से जितानेवाला (वृत्रहा) मेघ को नष्ट करनेहारे सूर्य्य के समान (अग्निः) परमेश्वर (दाशुषे) विद्या, शुभ गुणों के दान करनेवाले मनुष्य के लिये (गयम्) धन को (उदजनि) उत्पन्न करता है (उत्) और भी जिसका विद्वान् लोग उपदेश करते हैं (जन्तवः) सब मनुष्य (अध्वरम्) हिंसारहित (मन्त्रम्) उसी के विचार को (उपब्रुवन्तु) परस्पर उपदेश करें ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम जिसके आश्रय से शत्रुओं के पराजय द्वारा अपने विजय से राज्यधनों की प्राप्ति होती है, उस परमेश्वर का नित्य सेवन किया करो ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यो रणेरणे धनञ्जयो वृत्रहेव दाशुषे गयमुदजनि। उतापि यं विद्वांस उपदिशन्ति, तं जन्तवोऽन्योन्यमुपब्रुवन्तु ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अपि (ब्रुवन्तु) उपदिशन्तु (जन्तवः) जीवाः (उत्) उत्कृष्टे (अग्निः) विजयप्रदो भगवान् (वृत्रहा) मेघहन्ता सूर्य इवाविद्यान्धकारनाशकः (अजनि) जनयति (धनञ्जयः) यो धनेन जापयति सः (रणेरणे) युद्धे युद्धे ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यूयं यस्योपाश्रयेण शत्रूणां पराजयेन विजयः स्वविजयेन च राज्यधनानि जायन्ते, तं नित्यं सेवध्वम् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! ज्याच्या आश्रयामुळे शत्रूचा पराजय करून स्वतःला विजय प्राप्त होतो तसेच राज्य व धनाची प्राप्ती होते. त्या परमेश्वराचा तुम्ही नित्य स्वीकार करा. ॥ ३ ॥