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आ ये विश्वा॑ स्वप॒त्यानि॑ त॒स्थुः कृ॑ण्वा॒नासो॑ अमृत॒त्वाय॑ गा॒तुम्। म॒ह्ना म॒हद्भिः॑ पृथि॒वी वि त॑स्थे मा॒ता पु॒त्रैरदि॑ति॒र्धाय॑से॒ वेः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā ye viśvā svapatyāni tasthuḥ kṛṇvānāso amṛtatvāya gātum | mahnā mahadbhiḥ pṛthivī vi tasthe mātā putrair aditir dhāyase veḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। ये। विश्वा॑। सु॒ऽअ॒प॒त्यानि॑। त॒स्थुः। कृ॒ण्वा॒नासः॑। अ॒मृ॒त॒ऽत्वाय॑। गा॒तुम्। म॒ह्ना। म॒हत्ऽभिः॑। पृ॒थि॒वी। वि। त॒स्थे॒। मा॒ता। पु॒त्रैः। अदि॑तिः। धाय॑से। वेः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:72» मन्त्र:9 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:18» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (ये) जो (अमृतत्वाय) मोक्षादि सुख होने के लिये (गातुम्) भूमि के समान बोध के कोश को (कृण्वानासः) सिद्ध करते हुए विद्वान् लोग (महद्भिः) अतिसुख करनेवाले गुणों के साथ (विश्वा) सब (स्वपत्यानि) उत्तम शिक्षायुक्त पुत्रादिकों को (मह्ना) बड़े-बड़े गुणों से (धायसे) धारण के लिये (पृथिवी) भूमि के तुल्य (पुत्रैः) पुत्रों के साथ (माता) माता के समान (अदितिः) प्रकाशस्वरूप सूर्य स्थूल पदार्थों में (वेः) व्याप्ति करनेवाले पक्षी के समान (आतस्थुः) स्थित होते हैं, वैसे मैं इस कर्म का (वितस्थे) विशेष करके ग्रहण करता हूँ ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को विद्वानों के समान अपने सन्तानों को विद्या शिक्षा से युक्त करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी सुखों को प्राप्त करना चाहिये ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यथा येऽमृतत्वाय गातुं कृण्वानासो विद्वांसो महद्भिर्गुणः सह विश्वानि स्वपत्यानि मह्ना धायसे पृथिवीव पुत्रैर्मात्रेवादितिर्मूर्त्तान् पदार्थान् वेरिवातस्थुस्तथैवैतदहं वितस्थे ॥ ९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (ये) विद्वांसः (विश्वा) सर्वाणि (स्वपत्यानि) शोभनशिक्षायुक्तान् पुत्रादीन् (तस्थुः) तिष्ठन्ति (कृण्वानासः) कुर्वन्तः (अमृतत्वाय) मोक्षादिसुखानां भावाय (गातुम्) बोधसमूहम् गातुरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.१) (मह्ना) महागुणसमूहेन (महद्भिः) महासुखकारकैर्गुणैः (पृथिवीः) भूमिः (वि) विशेषार्थे (तस्थे) तिष्ठामि (मा) उत्पादिका (पुत्रैः) सह (अदितिः) द्यौः (धायसे) धारणाय। अत्र बाहुलकादौणादिकोऽसुन्प्रत्ययो युट् च। (वेः) पक्षिण इव ॥ ९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्वद्वत्स्वसंतानान् सुशिक्षाविद्या युक्तान् कृत्वा धर्मार्थकाममोक्षाः प्राप्यन्ताम् ॥ ९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वानांसारखे आपल्या संतानांना विद्या शिक्षणाने युक्त करून धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी सुख प्राप्त करावे. ॥ ९ ॥