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अ॒ग्निं विश्वा॑ अ॒भि पृक्षः॑ सचन्ते समु॒द्रं न स्र॒वतः॑ स॒प्त य॒ह्वीः। न जा॒मिभि॒र्वि चि॑किते॒ वयो॑ नो वि॒दा दे॒वेषु॒ प्रम॑तिं चिकि॒त्वान् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agniṁ viśvā abhi pṛkṣaḥ sacante samudraṁ na sravataḥ sapta yahvīḥ | na jāmibhir vi cikite vayo no vidā deveṣu pramatiṁ cikitvān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निम्। विश्वाः॑। अ॒भि। पृक्षः॑। स॒च॒न्ते॒। स॒मु॒द्रम्। न। स्र॒वतः॑। स॒प्त। य॒ह्वीः। न। जा॒मिभिः॑। वि। चि॒कि॒ते॒। वयः॑। नः॒। वि॒दाः। दे॒वेषु॑। प्रऽम॑तिम्। चि॒कि॒त्वान् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:71» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:16» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (चिकित्वान्) ज्ञानवान् ज्ञान का हेतु (नः) हम लोगों को (देवेषु) विद्वान् वा दिव्यगुणों में (प्रमतिम्) उत्तम ज्ञान को (विदाः) प्राप्त करता (वयः) जीवन का (विचिकिते) विशेष ज्ञान कराता है, उस (अग्निम्) अग्नि के समान विद्वान् (विश्वाः) सब (पृक्षः) विद्यासम्पर्क करनेवाले पुत्र वा दीप्ति (समुद्रम्) समुद्र वा (स्रवतः) नदी के समान शरीर को गमन कराते हुए (सप्त) सात अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान इन पाँच के और सू्त्ररूप आत्मा के समान सूत्रात्मकारणस्थ तथा (यह्वीः) रुधिर वा बिजुली आदि की गतियों के (न) समान (अभिसचन्ते) सम्बन्ध करती हैं, जिससे हम लोग मूर्ख वा दुःख देनेवाली (जामिभिः) स्त्रियों के साथ (न) नहीं बसें ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा तथा वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे समुद्र को नदी वा प्राणों को बिजुली आदि गति संयुक्त करती हैं, वैसे ही मनुष्य सब पुत्र वा कन्या ब्रह्मचर्य्य से विद्या वा व्रतों को समाप्त करके युवावस्थावाले होकर विवाह से सन्तानों को उत्पन्न कर उनको इसी प्रकार विद्या शिक्षा सदा ग्रहण करावें। पुत्रों के लिये विद्या की उत्तम शिक्षा करने के समान कोई बड़ा उपकार नहीं है ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यश्चिकित्वान् नोऽस्मान् देवेषु प्रमतिं विदा वयो विचिकिते तमग्निमिव विश्वाः पृक्षः पुत्र्यः कान्तयो वा समुद्रं स्रवतः सप्त प्राणान् यह्वीर्नेवाभिसचन्ते यतो वयं मूर्खाभिर्दुःखदाभिर्जामिभिर्वा सह न संवसेम ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निम्) विद्युतम् (विश्वाः) अखिलाः (अभि) अभितः (पृक्षः) याः पृचते विद्यासम्पर्कं कुर्वन्ति ताः पुत्र्यः (सचन्ते) समवयन्ति (समुद्रम्) अर्णवम् (न) इव (स्रवतः) प्राणान् (सप्त) प्राणापानव्यानोदानसमानसूत्रात्मकारणस्थान् (यह्वीः) महत्यो रुधिरविद्युदादिगतयः (न) निषेधे (जामिभिः) स्त्रीभिः (वि) विशेषे (चिकिते) ज्ञापयति (वयः) विज्ञानम् (नः) अस्मान् (विदाः) विज्ञापय (देवेषु) विद्वत्सु दिव्यगुणेषु वा (प्रमतिम्) प्रकृष्टं ज्ञानम् (चिकित्वान्) ज्ञानवान् ज्ञापको वा ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा समुद्रं नद्यः प्राणान् विद्युदादयश्च संयुञ्जन्ति तथैव मनुष्याः सर्वे पुत्रा कन्याश्च ब्रह्मचर्य्येण विद्याव्रते समाप्य युवाऽवस्थां प्राप्य विवाहादिना सन्तानानुत्पाद्य तेभ्यस्तथैव विद्यासुशिक्षा ग्राहयेयुरनेन समः कश्चिदधिक उपकारो न विद्यत इति ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे समुद्राला नदी किंवा प्राणांना विद्युत इत्यादी गतिसंयुक्त करतात तसेच माणसांनी सर्व पुत्र व कन्यांना ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्या व व्रत संपवून युवावस्थेत विवाह करून संतान उत्पन्न करून त्यांना त्याचप्रकारे विद्या व शिक्षण सदैव द्यावे. पुत्रांना विद्या व उत्तम शिक्षण देण्याखेरीज कोणताही मोठा उपकार नाही. ॥ ७ ॥