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वी॒ळु चि॑द्दृ॒ळ्हा पि॒तरो॑ न उ॒क्थैरद्रिं॑ रुज॒न्नङ्गि॑रसो॒ रवे॑ण। च॒क्रुर्दि॒वो बृ॑ह॒तो गा॒तुम॒स्मे अहः॒ स्व॑र्विविदुः के॒तुमु॒स्राः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vīḻu cid dṛḻhā pitaro na ukthair adriṁ rujann aṅgiraso raveṇa | cakrur divo bṛhato gātum asme ahaḥ svar vividuḥ ketum usrāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वी॒ळु। चि॒त्। दृ॒ळ्हा। पि॒तरः॑। नः॒। उ॒क्थैः। अद्रि॑म्। रुज॑न्। अङ्गि॑रसः। रवे॑ण। च॒क्रुः। दि॒वः। बृ॒ह॒तः। गा॒तुम्। अ॒स्मे इति॑। अह॒रिति॑। स्वः॑। वि॒वि॒दुः॒। के॒तुम्। उ॒स्राः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:71» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर किनकी कौन कैसे सेवा करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोगों को चाहिये कि जो (पितरः) ज्ञानी मनुष्य (उक्थैः) कहे हुए उपदेशों से (नः) हम लोगों के (दृढा) दृढ़ (केतुम्) प्रज्ञा (वीळु) बल (स्वः) (चित्) और सुख को (उस्राः) किरण वा (गातुम्) पृथिवी के समान (अहः) तथा दिन और (बृहतः) बड़े (दिवः) द्योतमान पदार्थों के समान (विविदुः) जानते हैं वा (अङ्गिरसः) वायु (रवेण) स्तुतिसमूह से (अद्रिम्) मेघ को (रुजन्) पृथिवी पर गिराते हुए के समान (अस्मे) हम लोगों के दुःखों को (चक्रुः) नष्ट करते हैं, उनको सेवें ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि पूर्ण विद्यायुक्त विद्वानों का सेवन तथा विद्या बुद्धि को उत्पन्न करके धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष फलों का सेवन करें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कैः के कथं सेवनीया इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

अस्माभिर्ये पितर उक्थैर्नोस्मान् दृढं केतुं वीळु स्वश्चिदुस्रा गातुमिवाहर्बृहतो दिव इव विविदुः। अङ्गिरसो रवेणाद्रिं रुजन्निवास्मे दुःखनाशं चक्रुस्ते सेवनीयाः ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वीळु) बलम् (चित्) अपि (दृढा) दृढम्। अत्राकारादेशः। (पितरः) ज्ञानिनः (नः) अस्मान् (उक्थैः) परिभाषितोपदेशैः (अद्रिम्) मेघमिव (रुजन्) भञ्जन्ति (अङ्गिरसः) वायवः (रवेण) स्तुतिसमूहेन (चक्रुः) कुर्वन्ति (दिवः) द्योतकान् (बृहतः) महतः (गातुम्) पृथिवीम् (अस्मे) अस्माकम् (अहः) व्यापनशीलं दिनम् (स्वः) सुखम् (विविदुः) वेदयन्ति (केतुम्) प्रज्ञानम् (उस्राः) किरणाः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैराप्तान् विदुषः संसेव्य विद्यां प्राप्य प्रज्ञामुत्पाद्य धर्मार्थकाममोक्षफलानि सेवनीयानि ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी पूर्ण विद्यायुक्त विद्वानांचे सेवन करावे व विद्या बुद्धीला उत्पन्न करून धर्म, अर्थ, काम, मोक्षफल प्राप्त करावे. ॥ २ ॥