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मा नो॑ अग्ने स॒ख्या पित्र्या॑णि॒ प्र म॑र्षिष्ठा अ॒भि वि॒दुष्क॒विः सन्। नभो॒ न रू॒पं ज॑रि॒मा मि॑नाति पु॒रा तस्या॑ अ॒भिश॑स्ते॒रधी॑हि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā no agne sakhyā pitryāṇi pra marṣiṣṭhā abhi viduṣ kaviḥ san | nabho na rūpaṁ jarimā mināti purā tasyā abhiśaster adhīhi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। नः॒। अ॒ग्ने॒। स॒ख्या। पित्र्या॑णि। प्र। म॒र्षि॒ष्ठाः॒। अ॒भि। वि॒दुः। क॒विः। सन्। नभः॑। न। रू॒पम्। ज॒रि॒मा। मि॒ना॒ति॒। पु॒रा। तस्याः॑। अ॒भिऽश॑स्तेः। अधि॑। इ॒हि॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:71» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:16» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) सब विद्याओं को प्राप्त हुए विद्वन् ! (जरिमा) स्तुति के योग्य (कविः) पूर्णविद्या को (विदुः) जाननेवाले (सन्) होकर आप (नभोरूपं न) जैसे आकाश सब रूपवाले पदार्थों को अपने में नाश के समय गुप्त कर लेता है, वैसे (नः) हम लोगों के (पुरा) प्राचीन (पित्र्याणि) पिता आदि से आए हुए (सख्या) मित्रता आदि कर्मों को (माभि प्र मर्षिष्ठाः) नष्ट मत कीजिए और (तस्याः) उस (अभिशस्तेः) नाश को (अधीहि) अच्छी प्रकार स्मरण रखिये, इस प्रकार का होकर जो सुख को (मिनाति) नष्ट करता है, उसको दूर कीजिये ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे रूपवाले पदार्थ सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त होकर अन्तरिक्ष में नहीं दीखते, वैसे हम लोगों के मित्रपन आदि व्यवहार नष्ट न होवें, किन्तु हम सब लोग विरोध सर्वथा छोड़कर परस्पर मित्र होके सब काल में सुखी रहें ॥ १० ॥ इस सूक्त में ईश्वर, सभाध्यक्ष, स्त्री, पुरुष, बिजुली और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स विद्वान् कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! पावकवज्जरिमा कविर्विदुः संस्त्वं नमो रूपं न तथा नोऽस्माकं पुरा पित्र्याणि सख्या माभिप्रमर्षिष्ठास्तस्या अभिशस्तेर्नाशस्याधीहि एवं भूतः सन् यः सुखं मिनाति तं दूरीकरु ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (अग्ने) सर्वविद्याऽभिव्याप्त विद्वन् (सख्या) मित्रभावकर्माणि (पित्र्याणि) पितृभ्य आगतानि (प्र) प्रकृष्टार्थे (मर्षिष्ठाः) विनाशयेः (अभि) अभितः (विदुः) वेत्ता (कविः) पूर्णविद्यः (सन्) वर्त्तमानः (नभः) अन्तरिक्षम् (न) इव (रूपम्) रूपवद्वस्तु (जरिमा) एतस्याः स्तुतेर्भावयुक्तः (मिनाति) हन्ति (पुरा) पुरातनानि (तस्याः) उक्तायाः (अभिशस्तेः) हिंसायाः (अधि) उपरिभावे (इहि) स्मर ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा रूपवन्तः पदार्थाः सूक्ष्मावस्थां प्राप्यान्तरिक्षेऽदृश्या भवन्ति। तथाऽस्माकं सखित्वानि नष्टानि न भवेयुर्यतः सर्वे वयं सर्वथा विरोधं विहाय परस्परं सुहृदो भूत्वा सर्वदा सुखिनः स्याम ॥ १० ॥ अत्रेश्वरसभाध्यक्षस्त्रीपुरुषविद्युद्विद्वद्गुणवर्णनं कृतमत एतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे आकारयुक्त पदार्थ सूक्ष्म अवस्थेत अंतरिक्षात दिसत नाहीत तसे आमची मैत्री वगैरे व्यवहार नष्ट होता कामा नयेत तर आम्ही सर्वांनी सर्वस्वी विरोध सोडून परस्पर मित्र बनून सर्व काळी सुखी राहावे. ॥ १० ॥