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इन्द्रं॑ वो वि॒श्वत॒स्परि॒ हवा॑महे॒ जने॑भ्यः। अ॒स्माक॑मस्तु॒ केव॑लः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indraṁ vo viśvatas pari havāmahe janebhyaḥ | asmākam astu kevalaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑म्। वः॒। वि॒श्वतः॑। परि॑। हवा॑महे। जने॑भ्यः। अ॒स्माक॑म्। अ॒स्तु॒। केव॑लः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:7» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त परमेश्वर सर्वोपरि विराजमान है, इस विषय का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग जिस (विश्वतः) सब पदार्थों वा (जनेभ्यः) सब प्राणियों से (परि) उत्तम-उत्तम गुणों करके श्रेष्ठतर (इन्द्रम्) पृथिवी में राज्य देनेवाले परमेश्वर का (हवामहे) वार-वार अपने हृदय में स्मरण करते हैं, वही परमेश्वर (वः) हे मित्र लोगो ! तुम्हारे और हमारे पूजा करने योग्य इष्टदेव (केवलः) चेतनमात्र स्वरूप एक ही है॥१०॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर इस मन्त्र में सब मनुष्यों के हित के लिये उपदेश करता है-हे मनुष्यो ! तुमको अत्यन्त उचित है कि मुझे छोड़कर उपासना करने योग्य किसी दूसरे देव को कभी मत मानो, क्योंकि एक मुझ को छोड़कर कोई दूसरा ईश्वर नहीं है। जब वेद में ऐसा उपदेश है तो जो मनुष्य अनेक ईश्वर वा उसके अवतार मानता है, वह सब से बड़ा मूढ़ है॥१०॥इस सप्तम सूक्त में जिस ईश्वर ने अपनी रचना के सिद्ध रहने के लिये अन्तरिक्ष में सूर्य्य और वायु स्थापन किये हैं, वही एक सर्वशक्तिमान् सर्वदोषरहित और सब मनुष्यों का पूज्य है। इस व्याख्यान से इस सप्तम सूक्त के अर्थ के साथ छठे सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। इस सूक्त के मन्त्रों के अर्थ सायणाचार्य्य आदि आर्य्यावर्त्तवासियों और विलसन आदि अङ्गरेज लोगों ने भी उलटे किये हैं॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अयमेव सर्वोपरि वर्त्तत इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे मनुष्या ! यं वयं विश्वतो जनेभ्यः सर्वगुणैरुत्कृष्टमिन्द्रं परमेश्वरं परि हवामहे, स एव वो युष्माकमस्माकं च केवलः पूज्य इष्टोऽस्तु॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रम्) पृथिव्यां राज्यप्रदम् (वः) युष्माकम् (विश्वतः) सर्वेभ्यः (परि) सर्वतोभावे। परीति सर्वतोभावं प्राह। (निरु०१.३) (हवामहे) स्तुवीमः (जनेभ्यः) प्रादुर्भूतेभ्यः (अस्माकम्) मनुष्याणाम् (अस्तु) भवतु (केवलः) एकश्चेतनमात्रस्वरूप एवेष्टदेवः॥१०॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरोऽस्मिन्मन्त्रे सर्वजनहितायोपदिशति-हे मनुष्या ! युष्माभिर्नैव कदाचिन्मां विहायान्य उपास्यदेवो मन्तव्यः। कुतः, नैव मत्तोऽन्यः कश्चिदीश्वरो वर्त्तते। एवं सति यः कश्चिदीश्वरत्वेऽनेकत्वमाश्रयति स मूढ एव मन्तव्य इति॥१०॥अत्र सप्तमे सूक्ते येनेश्वरेण रचयित्वाऽन्तरिक्षे कार्य्योपकरणार्थौ वायुसूर्य्यौ स्थापितौ स एवैकः सर्वशक्तिमान्सर्वदोषरहितः सर्वमनुष्यपूज्योऽस्तीति व्याख्यातमित्येत्सूक्तार्थेन सहास्य षष्ठसूक्तार्थस्य सङ्गतिरिति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिश्चासदर्थं व्याख्यातमिति सर्वैर्मन्तव्यम्॥अत्र सप्तमे सूक्ते येनेश्वरेण रचयित्वाऽन्तरिक्षे कार्य्योपकरणार्थौ वायुसूर्य्यौ स्थापितौ स एवैकः सर्वशक्तिमान्सर्वदोषरहितः सर्वमनुष्यपूज्योऽस्तीति व्याख्यातमित्येत्सूक्तार्थेन सहास्य षष्ठसूक्तार्थस्य सङ्गतिरिति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिश्चासदर्थं व्याख्यातमिति सर्वैर्मन्तव्यम्॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर या मंत्रात सर्व माणसांच्या हितासाठी उपदेश करतो - हे माणसांनो! तुम्ही मला सोडून दुसऱ्या कोणत्याही देवाची उपासना करू नका. कारण मला सोडून दुसरा कोणताही ईश्वर नाही. जेथे वेदात असा उपदेश केलेला आहे तेथे जो माणूस अनेक ईश्वर किंवा त्याचे अवतार मानतो, तो सर्वात मूढ असतो. ॥ १० ॥
टिप्पणी: या सूक्ताच्या मंत्रांचे अर्थ सायणाचार्य इत्यादी आर्यावर्तीय व विल्सन इत्यादी इंग्रजांनी विपरीत लावलेले आहेत.