अब अगले मन्त्र में ईश्वर और विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) पूर्ण विद्यायुक्त विद्वान् ! तू जैसे परमात्मा (सत्यैः) सत्य लक्षणों से प्रकाशित ज्ञानयुक्त (मन्त्रेभिः) विचारों से (क्षाम्) भूमि को (दाधार) अपने बल से धारण करता (पृथिवीम्) अन्तरिक्ष में स्थित जो अन्य लोक (द्याम्) तथा प्रकाशमय सूर्य्यादि लोकों को (तस्तम्भ) प्रतिबन्धयुक्त करता और (प्रिया) प्रीतिकारक (पदानि) प्राप्त करने योग्य ज्ञानों को प्राप्त कराता है (गुहा) बुद्धि में स्थित हुए (गुहम्) गूढ़ विज्ञान भीतर के स्थान को (गाः) प्राप्त हो वा होते हैं (पश्वः) बन्धन से हम लोगों की रक्षा करता वैसे धर्म से प्रजा की (नि पाहि) निरन्तर रक्षा कर और (अजो न) न्यायकारी ईश्वर के समान हूजिये ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परमेश्वर वा जीव कभी उत्पन्न वा नष्ट नहीं होता, वैसे कारण भी विनाश में नहीं आता। जैसे परमेश्वर अपने विज्ञान, बल आदि गुणों से पृथिवी आदि जगत् को रचकर धारण करता है, वैसे सत्य विचारों से सभाध्यक्ष राज्य का धारण करे। जैसे प्रिय मित्र अपने मित्र को दुःख के बन्धों से पृथक् करके उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त कराता है, वैसे ईश्वर और सूर्य्य भी सब सुखों को प्राप्त कराते हैं। जैसे अन्तर्य्यामि रूप से ईश्वर जीवादि को धारण करके प्रकाश करता है, वैसे सभाध्यक्ष सत्यन्याय से राज्य और सूर्य्य अपने आकर्षणादि गुणों से जगत् को धारण करता है ॥ ३ ॥