फिर पूर्वोक्त कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जो (चराथा) चररूप (वसत्या) वास करने योग्य पृथिवी के सह वर्त्तमान (गावः) गौ (न) जैसे (अस्तम्) घर को (नक्षन्ते) प्राप्त होती हैं, जैसे (गावः) किरण (स्वर्दृशीके) देखने के हेतु व्यवहार में (इद्धम्) सूर्य्य को (नवन्ते) प्राप्त होते हैं (न) जैसे (सिन्धुः) समुद्र (नीचीः) नीचे के (क्षोदः) जल को प्राप्त होता है, वैसे (वः) तुम लोगों को (प्रैनोत्) प्राप्त होता है, उसी की सेवा हम लोग करें ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सभापति आदि इस प्रकार परमेश्वर का सेवन और विद्युत् अग्नि को सिद्ध करते हैं, उनको जैसे गौ, घर और किरण सूर्य को प्राप्त होते हैं और जैसे मनुष्य समुद्र को प्राप्त होके नाना प्रकार के कामों को सुशोभित (सिद्ध) करता है, वैसे ही सज्जन पुरुषों को उचित है कि अन्तर्य्यामी परमेश्वर की उपासना तथा विद्युत् विद्या को यथावत् सिद्ध करके अपनी सब कामनाओं को पूर्ण करें ॥ ५ ॥ इस सूक्त में ईश्वर और अग्नि के गुणों का वर्णन होने इस सूक्त की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥