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म॒हि॒षासो॑ मा॒यिन॑श्चि॒त्रभा॑नवो गि॒रयो॒ न स्वत॑वसो रघु॒ष्यदः॑। मृ॒गाइ॑व ह॒स्तिनः॑ खादथा॒ वना॒ यदारु॑णीषु॒ तवि॑षी॒रयु॑ग्ध्वम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mahiṣāso māyinaś citrabhānavo girayo na svatavaso raghuṣyadaḥ | mṛgā iva hastinaḥ khādathā vanā yad āruṇīṣu taviṣīr ayugdhvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒हि॒षासः॑। मा॒यिनः॑। चि॒त्रऽभा॑नवः। गि॒रयः॑। न। स्वऽत॑वसः। र॒घु॒ऽस्यदः॑। मृ॒गाःऽइ॑व। ह॒स्तिनः॑। खा॒द॒थ॒। वना॑। यत्। आरु॑णीषु। तवि॑षीः। अयु॑ग्ध्वम् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:64» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:7» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे पूर्वोक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग (यत्) जैसे (महिषासः) बड़े-बड़े सेवन करने योग्य गुणों से युक्त (चित्रभानवः) चित्र-विचित्र दीप्तिवाले (मायिनः) उत्तम बुद्धि होने के हेतु (स्वतवसः) अपने बल से बलवान् (रघुष्यदः) अच्छे स्वाद के कारण वा उत्तम चलन क्रिया से युक्त (गिरयो न) मेघों के समान जलों को तथा (हस्तिनः) हाथी और (मृगाइव) बलवाले हरिणों के समान वेगयुक्त वायु (वना) जल वा वनों को (खादथ) भक्षण करते हैं, वैसे इन (तविषीः) बलों को (आरुणीषु) प्राप्त होते हैं, सुख जिन्हों में, उन सेना और यानों की क्रियाओं में (अयुग्ध्वम्) ठीक-ठीक विचारपूर्वक संयुक्त करो ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि पवनों के विना हमारे चलना, खाना, यान का चलाना आदि काम भी सिद्ध नहीं हो सकते, इससे इन वायुओं को सेना, विमान और नौका आदि यानो में संयुक्त करके अग्नि जलों के संयोग से यानों को शीघ्र चलाया करें ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यूयं यद्यथा महिषासश्चित्रभानवो मायिनः स्वतवसो रघुष्यदो गिरवो नेव जलानि हस्तिनो मृगाइव च वना खादथ तथैतेषां तविषीरारुणीष्वयुग्ध्वम् ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (महिषासः) पूजितगुणा महान्तः। महिष इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) (मायिनः) प्रशस्ता माया प्रज्ञा विद्यते येभ्यस्ते (चित्रभानवः) चित्रा अद्भुता भानवो दीप्तयो येभ्यस्ते (गिरयः) ये जलं गिलन्ति शब्दं वा गृणन्ति ते मेघाः (न) इव (स्वतवसः) स्वं स्वकीयं तवो बलं येषु ते (रघुष्यदः) रघव आस्वादाः स्यदश्च प्रश्रवणानि प्रकृष्टगमनानि येषां ते (मृगाइव) हरिणवद् वेगवन्तः (हस्तिनः) किरणाः (खादथ) खादन्ति (वना) वनानि जलानि वा (यत्) यथा (आरुणीषु) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यैस्तान्यरुणानि यानानि तेषामिमाः क्रियास्तासु (तविषीः) बलानि (अयुग्ध्वम्) योजयत ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्नहि वायुभिर्विना गमनभोजनयानचालनादीनि कर्माणि कर्त्तुं शक्यन्ते तस्मादेते वायवो विमाननौकादियानेषु संप्रयोज्याऽग्निजलयोगेन यानानि सद्यश्चालनीयानि ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. वायूशिवाय आमचे चालणे, खाणे, यान चालविणे इत्यादी कामही सिद्ध होऊ शकत नाही. यामुळे माणसांनी या वायूंना सेना, विमान व नौका इत्यादी यानात संयुक्त करून अग्नी जलाच्या संयोगाने यानांना तात्काळ चालवावे. ॥ ७ ॥