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पिन्व॑न्त्य॒पो म॒रुतः॑ सु॒दान॑वः॒ पयो॑ घृ॒तव॑द्वि॒दथे॑ष्वा॒भुवः॑। अत्यं॒ न मि॒हे वि न॑यन्ति वा॒जिन॒मुत्सं॑ दुहन्ति स्त॒नय॑न्त॒मक्षि॑तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pinvanty apo marutaḥ sudānavaḥ payo ghṛtavad vidatheṣv ābhuvaḥ | atyaṁ na mihe vi nayanti vājinam utsaṁ duhanti stanayantam akṣitam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पिन्व॑न्ति। अ॒पः। म॒रुतः॑। सु॒ऽदान॑वः। पयः॑। घृ॒तऽव॑त्। वि॒दथे॑षु। आ॒ऽभुवः॑। अत्य॑म्। न। मि॒हे। वि। न॒य॒न्ति॒। वा॒जिन॑म्। उत्स॑म्। दु॒ह॒न्ति॒। स्त॒नय॑न्तम्। अक्षि॑तम् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:64» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उक्त वायु किस प्रकार के गुणवाले हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे (आभुवः) अच्छे प्रकार उत्पन्न होने तथा (सुदानवः) उत्तम दान देने के हेतु (मरुतः) पवन (विदथेषु) यज्ञों में (घृतवत्) घृत के तुल्य (पयः) जल वा रस को (पिन्वन्ति) सेवन वा सेचन करते हैं (मिहे) वीर्य वृष्टि के लिये (अत्यम्) घोड़े के (न) समान (अपः) प्राण, जल वा अन्तरिक्ष के अवयवों को (विनयन्ति) नाना प्रकार से प्राप्त करते हैं (उत्सम्) और कूप के समान (अक्षितम्) नाशरहित (स्तनयन्तम्) शब्द करते हुए (वाजिनम्) उत्तम वेगवाले पुरुष को (दुहन्ति) पूर्ण करते हैं, वैसे हो और उनको कार्यों में लगाओ ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा तथा वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे यज्ञ में घृत आदि पदार्थ, क्षेत्र पशु आदि की तृप्ति के लिये कूप तथा घोड़ी की तृप्ति के लिये घोड़ा है, वैसे विद्या से संप्रयोग किये हुए पवन सब कार्यों को सिद्ध करते हैं ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्याः ! यूयं यथाऽऽभुवः सुदानवो मरुतो विदथेषु घृतवत्पयः पिन्वन्ति मिह अत्यं नेवापो विनयन्ति। उत्समिवाक्षितं स्तनयन्तं वाजिनं दुहन्ति तथाऽऽचरत ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पिन्वन्ति) सेवन्ते सिञ्चन्ति वा (अपः) प्राणान् जलान्यन्तरिक्षावयवान् (मरुतः) शरीरत्यागहेतवः (सुदानवः) सुष्ठु दानवो दानानि येभ्यस्ते (पयः) जलं रसं वा (घृतवत्) घृतेन तुल्यम् (विदथेषु) यज्ञेषु (आभुवः) समन्ताद्भवन्ति ये ते (अत्यम्) अश्वम् (न) इव (मिहे) वीर्यसेचनाय वेगाय वा (वि) विविधार्थे (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (वाजिनम्) प्रशस्तो वाजो वेगो यस्यास्ति तम् (उत्सम्) कूपम् (दुहन्ति) पिपुरति (स्तनयन्तम्) शब्दयन्तम् (अक्षितम्) क्षयरहितम् ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा यज्ञेषु घृतादिकं हविः क्षेत्रपश्वादितृप्तये कूपो वडवासेचनायाश्वश्चास्ति तथैव विद्यया संप्रयुक्ता वायवः सर्वाणि कार्याणि साध्नुवन्तीति ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे यज्ञाच्या तृप्तीसाठी घृत इत्यादी पदार्थ; शेत, पशू इत्यादींच्या तृप्तीसाठी कूप व घोडीच्या तृप्तीसाठी घोडा असतो. तसे विद्येच्या संप्रयोगाने वायू कार्य सिद्ध करतात. ॥ ६ ॥