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त्वं ह॒ त्यदि॒न्द्रारि॑षण्यन्दृ॒ळ्हस्य॑ चि॒न्मर्ता॑ना॒मजु॑ष्टौ। व्य१॒॑स्मदा काष्ठा॒ अर्व॑ते वर्घ॒नेव॑ वज्रिञ्छ्नथिह्य॒मित्रा॑न् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ ha tyad indrāriṣaṇyan dṛḻhasya cin martānām ajuṣṭau | vy asmad ā kāṣṭhā arvate var ghaneva vajriñ chnathihy amitrān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। ह॒। त्यत्। इ॒न्द्र॒। अरि॑षण्यन्। दृ॒ळ्हस्य॑। चि॒त्। मर्ता॑नाम्। अजु॑ष्टौ। वि। अ॒स्मत्। आ। काष्ठाः॑। अर्व॑ते। वः॒। घ॒नाऽइ॑व। व॒ज्रि॒न्। श्न॒थि॒हि॒। अ॒मित्रा॑न् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:63» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:4» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह उक्त सभाध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अरिषण्यन्) अपने शरीर से हिंसा अधर्म्म की इच्छा नहीं करनेवाले (वज्रिन्) उत्तम आयुधों से युक्त (इन्द्र) सभापते ! (त्वम्) आप (ह) प्रसिद्ध (अस्मत्) हम लोगों से (अर्वते) घोड़े आदि धनों से युक्त सेना के लिये (व्यावः) अनेक प्रकार स्वीकार करते हो (त्यत्) उस (दृढस्य) स्थिर राज्य (चित्) और (मर्त्तानाम्) प्रजा के मनुष्यों को शत्रुओं की (अजुष्टौ) अप्रीति होने में (घनेव) जैसे सूर्य मेघों को काटता (अमित्रान्) धर्म्मविरोधी शत्रुओं को (काष्ठाः) दिशाओं के प्रति (श्नथिहि) मारो ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सभा सभापति आदि को उचित है कि राज्य तथा सेना में प्रीति उत्पन्न और शत्रुओं में द्वेष करके जैसे सूर्य मेघों का नित्य छेदन करता है, वैसे दुष्ट शत्रुओं का सदैव छेदन किया करें ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे अरिषण्यन् वज्रिन्निन्द्र ! त्वं ह प्रसिद्धमस्मदर्वते व्यावः। त्यत्तस्य दृढस्य राज्यस्य मर्त्तानां चिदप्यजुष्टौ घनेवामित्रान् काष्ठाः श्नथिहि ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) उक्तार्थः (ह) प्रसिद्धम् (त्यत्) तस्य (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष ! (अरिषण्यन्) आत्मनो रिषं हिंसनमनिच्छन्। अत्र दुरस्युर्द्रविणस्यु०। (अष्टा०७.४.३६) अनेनेत्वनिषेधः। (दृढस्य) स्थिरस्य (चित्) अपि (मर्त्तानाम्) मनुष्याणाम् (अजुष्टौ) अप्रतीतावसेवने (वि) (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (आ) अभितः (काष्ठाः) दिशः प्रति (अर्वते) अश्वादियुक्ताय सैन्याय (वः) वृणोषि (घनेव) यथा घनेन तथा (वज्रिन्) प्रशस्तो वज्रः शस्त्रसमूहो विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (श्नथिहि) हिन्धि (अमित्रान्) धर्मविरोधिनो मनुष्यान् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। सभाद्यध्यक्षाभ्यां राज्यसेनयोः प्रीतिमुत्पाद्य शत्रुषु द्वेषश्चेति यथा सूर्यो मेघान् छिनत्ति तथैव दुष्टाः सदा छेत्तव्याः ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. सभा, सभापती इत्यादींनी राज्य व सेना यांच्यात प्रेम उत्पन्न करून शत्रूंचा द्वेष करून जसा सूर्य मेघांचे नित्य छेदन करतो तसे दुष्ट शत्रूंचे सदैव छेदन करावे. ॥ ५ ॥