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तदु॒ प्रय॑क्षतममस्य॒ कर्म॑ द॒स्मस्य॒ चारु॑तममस्ति॒ दंसः॑। उ॒प॒ह्व॒रे यदुप॑रा॒ अपि॑न्व॒न्मध्व॑र्णसो न॒द्य१॒॑श्चत॑स्रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tad u prayakṣatamam asya karma dasmasya cārutamam asti daṁsaḥ | upahvare yad uparā apinvan madhvarṇaso nadyaś catasraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। ऊँ॒ इति॑। प्रय॑क्षऽतमम्। अ॒स्य॒। कर्म॑। द॒स्मस्य॑। चारु॑ऽतमम्। अ॒स्ति॒। दंसः॑। उ॒प॒ऽह्व॒रे। यत्। उप॑राः। अपि॑न्वत्। मधु॑ऽअर्णसः। न॒द्यः॑। चत॑स्रः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:62» मन्त्र:6 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी इस सभाध्यक्ष के कैसे कर्म हों, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोगों को उचित है कि (अस्य) इस (दस्मस्य) दुःख नष्ट करनेवाले सभाध्यक्ष वा बिजुली के (उपह्वरे) कुटिलतायुक्त व्यवहार में (यत्) जो (प्रयक्षतमम्) अत्यन्त पूजने योग्य (चारुतमम्) अतिसुन्दर (दंसः) विद्या वा सुखों के जानने का हेतु (कर्म) कर्म (अस्ति) है (तदु) उसको जानकर आचरण करना वा जिनके इस प्रकार के कर्म से (मध्वर्णसः) मधुर जलवाली (नद्यः) नदी और (चतस्रः) चार (उपराः) दिशा (अपिन्वत्) सेवन या सेचन करती हैं। उन दोनों को विद्या से अच्छी प्रकार सेवन करना चाहिये ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि अति उत्तम-उत्तम कर्मों का सेवन, यज्ञ का अनुष्ठान और राज्य का पालन करके सब दिशाओं में कीर्त्ति की वर्षा करें ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरस्य कीदृशं कर्म स्यादित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्याः ! युष्माभिरस्य दस्मस्येन्द्रस्य सभाद्यध्यक्षस्य स्तनयित्नोर्वोपह्वरे यत्प्रयक्षतमं चारुतमं दंसः कर्मास्ति, तदु विदित्वाऽऽचरणीयं य ईदृशेन कर्मणा मध्वर्णसो नद्यश्चतस्र उपरा दिशोऽपिन्वत् सेवते सिञ्चति स विद्यया सम्यक् सेवताम् ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) वक्ष्यमाणम् (उ) वितर्के (प्रयक्षतमम्) अत्यन्तपूजनीयम् (अस्य) सभाध्यक्षस्य (कर्म) क्रियमाणम् (दस्मस्य) दुःखोपक्षेतुः (चारुतमम्) अतीव सुन्दरम् (अस्ति) वर्त्तते (दंसः) दंसयन्ति पश्यन्ति विद्याः सुखानि च येन कर्मणा तत् (उपह्वरे) उपह्वरन्ति कुटिलयन्ति येन तस्मिन् व्यवहारे। अत्र कृतो बहुलमिति करणे अच्। (यत्) उक्तम् (उपराः) दिशः। उपरा इति दिङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.६) (अपिन्वत्) सेवते (मध्वर्णसः) मधूनि मधुराण्यर्णांस्युदकानि यासु ताः (नद्यः) सरितः (चतस्रः) चतुःसंख्याकाः ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैः श्रेष्ठतमानि कर्माणि संसेव्य यज्ञमनुष्ठाय राज्यं पालयित्वा सर्वासु दिक्षु कीर्तिवृष्टिः संप्रसारणीयेति ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी श्रेष्ठ कर्मांचा स्वीकार करावा. यज्ञाचे अनुष्ठान करावे व राज्याचे पालन करून सर्व दिशांमध्ये कीर्ती पसरवावी. ॥ ६ ॥