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स॒ना॒य॒ते गोत॑म इन्द्र॒ नव्य॒मत॑क्ष॒द्ब्रह्म॑ हरि॒योज॑नाय। सु॒नी॒थाय॑ नः शवसान नो॒धाः प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sanāyate gotama indra navyam atakṣad brahma hariyojanāya | sunīthāya naḥ śavasāna nodhāḥ prātar makṣū dhiyāvasur jagamyāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒ना॒य॒ते। गोत॑मः। इ॒न्द्र॒। नव्य॑म्। अत॑क्षत्। ब्रह्म॑। ह॒रि॒ऽयोज॑नाय। सु॒ऽनी॒थाय॑। नः॒। श॒व॒सा॒न॒। नो॒धाः। प्रा॒तः। म॒क्षु। धि॒याऽव॑सुः। ज॒ग॒म्या॒त् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:62» मन्त्र:13 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शवसान) बलयुक्त (इन्द्र) उत्तम धनवाले सभाध्यक्ष (धियावसुः) बुद्धि और कर्म के साथ बसनेवाले (गोतमः) अत्यन्त स्तुति के योग्य तथा (नोधाः) स्तुति करनेवाले आप (हरियोजनाय) मनुष्यों से समाधान के लिये (नव्यम्) नवीन (ब्रह्म) बड़े धन को (अतक्षत्) क्षीण करते हो (नः) हम लोगों को (सुनीथाय) सुखों की प्राप्ति के लिये (प्रातः) प्रतिदिन (मक्षु) शीघ्र (सनायते) सनातन के समान आचरण करते हो तथा (नः) हम लोगों के सुखों के लिये शीघ्र (जगम्यात्) प्राप्त हो ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - सभापति आदि को चाहिये कि मनुष्यों के हित के लिये प्रतिदिन नवीन-नवीन धन और अन्न को उत्पन्न करें। जैसे प्राणवायु से मनुष्यों को सुख होते हैं, वैसे ही सभाध्यक्ष सबको सुखी करें ॥ १३ ॥ इस सूक्त में ईश्वर, सभाध्यक्ष, दिन, रात, विद्वान्, सूर्य और वायु के गुणों का वर्णन होने से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

हे शवसानेन्द्र गोतमो धियावसुर्नोधा भवान् हरियोजनाय नव्यं ब्रह्मातक्षत्तनूकरोति नोऽस्मभ्यं सुनीथाय प्रातर्मक्षु सनायते नोऽस्मान् सद्यो जगम्यात् ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सनायते) सना सनातन इवाचरति (गोतमः) गच्छतीति गोः स्तोता सोऽतिशयितः सः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (नव्यम्) नवीनम् (अतक्षत्) तनूकरोति (ब्रह्म) बृहद्धनमन्नं वा। ब्रह्मेति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) अन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (हरियोजनाय) हरीणां मनुष्याणां योजनाय समाधानाय। हरय इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (सुनीथाय) सुखानां सुष्ठु प्रापणाय (नः) अस्मान् (शवसान) बलयुक्त (नोधाः) स्तोता। नुवो धुट् च। (उणा०४.२२३) अनेनौणादिकसूत्रेणास्य सिद्धिः। (प्रातः) प्रतिदिनम् (मक्षु) शीघ्रम् (धियावसुः) यः प्रज्ञया कर्मणा वा वसति सः (जगम्यात्) पुनः पुनः प्राप्नुयात् ॥ १३ ॥
भावार्थभाषाः - सभाद्यध्यक्षो मनुष्येभ्यो हिताय प्रतिदिनं नवीनं नवीनं धनमन्नं च प्रापयेत्। यथा प्राणो वायुः सुखानि प्रापयति तथैव सर्वान् सुखयेत् ॥ १३ ॥ अस्मिन् सूक्त ईश्वरसभाध्यक्षाहोरात्रविद्वत्सूर्य्यवायुगुणानां वर्णनादेतदर्थस्यैकषष्टितमसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सभापती इत्यादींनी माणसांच्या हितासाठी प्रत्येक दिवशी नवनवीन धन व अन्न उत्पन्न करावे. जसे प्राणवायूने माणसांना सुख मिळते. तसेच सभाध्यक्षाने सर्वांना सुखी करावे. ॥ १३ ॥