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अ॒स्मा इदु॒ सप्ति॑मिव श्रव॒स्येन्द्रा॑या॒र्कं जु॒ह्वा॒३॒॑ सम॑ञ्जे। वी॒रं दा॒नौक॑सं व॒न्दध्यै॑ पु॒रां गू॒र्तश्र॑वसं द॒र्माण॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmā id u saptim iva śravasyendrāyārkaṁ juhvā sam añje | vīraṁ dānaukasaṁ vandadhyai purāṁ gūrtaśravasaṁ darmāṇam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मै। इत्। ऊँ॒ इति॑। सप्ति॑म्ऽइव। श्र॒व॒स्या। इन्द्रा॑य। अ॒र्कम्। जु॒ह्वा॑। सम्। अ॒ञ्जे॒। वी॒रम्। दा॒नऽओ॑कसम्। व॒न्दध्यै॑। पु॒राम्। गू॒र्तऽश्र॑वसम्। द॒र्माण॑म् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:61» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:27» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (श्रवस्या) अपने करने की इच्छा (जुह्वा) विद्याओं के लेने-देनेवाली क्रियाओं से (अस्मै) इस (इन्द्राय) परमैश्वर्य प्राप्त करनेवाले (इत्) सभाध्यक्ष का ही (उ) विशेष तर्क के साथ (वन्दध्यै) स्तुति कराने के लिये (सप्तिमिव) वेगवाले घोड़े के समान (गूर्त्तश्रवसम्) जिसने सब शास्त्रों के श्रवणों को ग्रहण किया है (पुराम्) शत्रुओं के नगरों के (दर्माणम्) विदारण करने वा (दानौकसम्) दान वा स्थानयुक्त (अर्कम्) सत्कार के हेतु (वीरम्) विद्या शौर्यादि गुणयुक्त वीर (इत्) ही को (समञ्जे) अच्छे प्रकार कामना करता हूँ, वैसी तुम भी कामना किया करो ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मनुष्य लोग रथ में घोड़े को जोड़ उस के ऊपर स्थित होकर जाने-आने से कार्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे वर्त्तमान विद्वान् वीर पुरुषों के सङ्ग से सब कार्यों को मनुष्य लोग सिद्ध करें ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथाऽहं श्रवस्या जुह्वा स्मा इन्द्रायेदु वन्दध्यै सप्तिमिव गूर्त्तश्रवसं पुरां दर्माणं दानौकसमर्कं वीरमित् समञ्जे सम्यक्कामये तथा तं यूयमपि कामयध्वम् ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) सभ्याय विदुषे (इत्) एव (उ) वितर्के (सप्तिमिव) यथा वेगवानश्वः (श्रवस्या) आत्मनः श्रवणेच्छया (इन्द्राय) परमैश्वर्यप्रापकाय (अर्कम्) अर्च्यन्ते येन तम् (जुह्वा) जुहोति गृह्णाति ददाति वा यया तया (सम्) सम्यगर्थे (अञ्जे) कामये। अत्र विकरणलुक् व्यत्ययेन आत्मनेपदं च। (वीरम्) विद्याशौर्यगुणयुक्तम् (दानौकसम्) दानमोकश्च यस्य तम् (वन्दध्यै) अभिवन्दितुं स्तोतुम् (पुराम्) शत्रुनगराणाम् (गूर्त्तश्रवसम्) गूर्त्तं निगलितं श्रवः शास्त्रश्रवणं येन तम् (दर्माणम्) विदारयितारम् ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा मनुष्या रथेऽश्वान् योजयित्वा तदुपरि स्थित्वा गमनाऽऽगमनाभ्यां कार्याणि साध्नुवन्ति तथा वर्त्तमानैर्विद्वद्भिर्वीरैः सह सङ्गत्य सर्वाणि कार्याणि मनुष्यैः साधनीयानि ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी माणसे रथांना घोडे जुंपून त्यात बसून जाण्या-येण्याचे कार्य करतात तसे विद्यमान विद्वान वीर पुरुषांच्या संगतीने सर्व कार्य माणसांनी सिद्ध करावे. ॥ ५ ॥