वांछित मन्त्र चुनें

अ॒स्मा इदु॒ स्तोमं॒ सं हि॑नोमि॒ रथं॒ न तष्टे॑व॒ तत्सि॑नाय। गिर॑श्च॒ गिर्वा॑हसे सुवृ॒क्तीन्द्रा॑य विश्वमि॒न्वं मेधि॑राय ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmā id u stomaṁ saṁ hinomi rathaṁ na taṣṭeva tatsināya | giraś ca girvāhase suvṛktīndrāya viśvaminvam medhirāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मै। इत्। ऊँ॒ इति॑। स्तोम॑म्। सम्। हि॒नो॒मि॒। रथ॑म्। न। तष्टा॑ऽइव। तत्ऽसि॑नाय। गिरः॑। च॒। गिर्वा॑हसे। सु॒ऽवृ॒क्ति। इन्द्रा॑य। वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वम्। मेधि॑राय ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:61» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:27» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (मेधिराय) अच्छे प्रकार जानने (गिर्वाहसे) विद्यायुक्त वाणियों को प्राप्त करानेवाले (अस्मै) इस (इन्द्राय) विद्या की वृष्टि करनेवाले विद्वान् (इत्) ही के लिये (उ) तर्कपूर्वक (रथम्) यानसमूह के (न) समान (तत्सिनाय) यानसमूह के बन्धन के लिये (तष्टेव) तीक्ष्ण करनेवाले कारीगर के तुल्य (विश्वमिन्वम्) सब विज्ञान को प्राप्त कराने (सुवृक्ति) जिससे सब दोषों को छो़ड़ते हैं, उस (स्तोमम्) शास्त्रों के अभ्यासयुक्त स्तुति (च) और (गिरः) वेदवाणियों को (संहिनोमि) सम्यक् बढ़ाता हूँ, वैसे तुम भी प्रयत्न किया करो ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रथ का बनानेवाला दृढ़ रथ के बनाने के वास्ते उत्तम बन्धनों के सहित यन्त्रकलाओं को अच्छे प्रकार रच कर अपने प्रयोजनों को सिद्ध करता और सुखपूर्वक जाना-आना करके आनन्दित होता है, वैसे ही मनुष्य विद्वान् का आश्रय लेकर उस के सम्बन्ध से धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करके सदा आनन्द में रहें ॥ ४ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथाऽहं मेधिराय गिर्वाहसेऽस्मा इन्द्रायेदुं रथं न यानसमूहमिव तत्सिनाय तष्टेव विश्वमिन्वं सुवृक्ति स्तोमं गिरश्च संहिनोमि, तथा यूयमपि प्रयतध्वम् ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) सभ्याय (इत्) अपि (उ) वितर्के (स्तोमम्) स्तुतिम् (सम्) सम्यगर्थे (हिनोमि) वर्धयामि (रथम्) यानसमूहम् (न) इव (तष्टेव) यथा तनूकर्त्ता शिल्पी (तत्सिनाय) तस्य यानसमूहस्य बन्धनाय (गिरः) वाचः (च) समुच्चये (गिर्वाहसे) यो गिरो विद्यावाचो वहति तस्मै (सुवृक्ति) सुष्ठु वृजते त्यजन्ति दोषान् यस्मात्तत् (इन्द्राय) विद्यावृष्टिकारकाय (विश्वमिन्वम्) यो विश्वं सर्वं विज्ञानमिन्वति व्याप्नोति तत्। अत्र विभक्त्यलुक्। (मेधिराय) धीमते ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा रथकारो दृढं रथं चालनाय बन्धनैः सह यन्त्रकलाः सम्यग्रचयित्वा स्वप्रयोजनानि साध्नोति सुखेन गमनागमने कृत्वा मोदते, तथैव मनुष्यो विद्वांसमाश्रित्य तत्सन्नियोगेन विद्या गृहीत्वा सुखेन धर्मार्थकाममोक्षान् साधयित्वा सततमानन्देत् ॥ ४ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा रथ तयार करणारा दृढ रथ तयार करण्यासाठी उत्तम बंधनांनी यंत्रकलांना चांगल्या प्रकारे तयार करून आपले प्रयोजन सिद्ध करतो व सुखपूर्वक जाणे-येणे करून आनंदित होतो. तसेच माणसांनी विद्वानाचा आश्रय घेऊन त्यांच्या सान्निध्याने धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध करून सदैव आनंदात राहावे. ॥ ४ ॥