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अ॒स्मा इदु॒ त्यमु॑प॒मं स्व॒र्षां भरा॑म्याङ्गू॒षमा॒स्ये॑न। मंहि॑ष्ठ॒मच्छो॑क्तिभिर्मती॒नां सु॑वृ॒क्तिभिः॑ सू॒रिं वा॑वृ॒धध्यै॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmā id u tyam upamaṁ svarṣām bharāmy āṅgūṣam āsyena | maṁhiṣṭham acchoktibhir matīnāṁ suvṛktibhiḥ sūriṁ vāvṛdhadhyai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मै। इत्। ऊँ॒ इति॑। त्यम्। उ॒प॒ऽमम्। स्वः॒ऽसाम्। भरा॑मि। आ॒ङ्गू॒षम्। आ॒स्ये॑न। मंहि॑ष्ठम्। अच्छो॑क्तिऽभिः। म॒ती॒नाम्। सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑। सू॒रिम्। व॒वृ॒धध्यै॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:61» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (अस्मै) इस सभाध्यक्ष के लिये (मतीनाम्) मनुष्यों के (वावृधध्यै) अत्यन्त बढ़ाने को (आस्येन) सुख से (सुवृक्तिभिः) जिन में अच्छे प्रकार अधर्म और अविद्या को छोड़ सकें (अच्छोक्तिभिः) श्रेष्ठ वचन स्तुतियों से (इत्) भी (उ) (त्यम्) उसी (उपमम्) उपमा करने योग्य (स्वर्षाम्) सुखों को प्राप्त कराने (आङ्गूषम्) स्तुति को प्राप्त किये हुए (मंहिष्ठम्) अतिशय करके विद्या से वृद्ध (सूरिम्) शास्त्रों को जाननेवाले विद्वान् को (भरामि) धारण करता हूँ, वैसे तुम लोग भी किया करो ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वानों से मनुष्यों के लिये सब से उत्तम उपमारहित यत्न किया जाता है, वैसे इन के सत्कार के वास्ते सब मनुष्य भी प्रयत्न किया करें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथाऽहमस्मा आस्येन मतीनां वावृधध्यै सुवृक्तिभिरच्छोक्तिभिः स्तुतिभिरिदुत्यमुपमं स्वर्षामाङ्गूषं मंहिष्ठं सूरिं भरामि तथैव यूयमपि भरत ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) सभाध्यक्षाय (इत्) अपि (उ) वितर्के (त्यम्) तम् ( उपमम्) दृष्टान्तस्वरूपम् (स्वर्षाम्) सुखप्रापकम् (भरामि) धरामि (आङ्गूषम्) स्तुतिप्राप्तम् (आस्येन) मुखेन (मंहिष्ठम्) अतिशयेन मंहिता वृद्धस्तम् (अच्छोक्तिभिः) अच्छ श्रेष्ठा उक्तयो वचनानि यासु स्तुतिषु ताभिः (मतीनाम्) मननशीलानां मनुष्याणाम् (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु व्रजन्ति गच्छन्ति याभिस्ताभिः (सूरिम्) शास्त्रविदम् (वावृधध्यै) पुनः पुनर्वर्धितुम् ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वद्भिर्मनुष्याणां सुखाय सर्वथोत्कृष्टोऽनुपमो यत्नः क्रियते, तथैतेषां सत्काराय मनुष्यैरपि प्रयतितव्यम् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा विद्वानांकडून माणसांच्या सुखासाठी उत्कृष्ट, अनुपम यत्न केला जातो. तसा त्यांच्या सत्कारासाठीही सर्व माणसांनी प्रयत्न करावा. ॥ ३ ॥