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अ॒स्मा इदु॒ प्रय॑इव॒ प्र यं॑सि॒ भरा॑म्याङ्गू॒षं बाधे॑ सुवृ॒क्ति। इन्द्रा॑य हृ॒दा मन॑सा मनी॒षा प्र॒त्नाय॒ पत्ये॒ धियो॑ मर्जयन्त ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmā id u praya iva pra yaṁsi bharāmy āṅgūṣam bādhe suvṛkti | indrāya hṛdā manasā manīṣā pratnāya patye dhiyo marjayanta ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्मै। इत्। ऊँ॒ इति॑। प्रयः॑ऽइव। प्र। यं॒सि॒। भरा॑मि। आ॒ङ्गू॒षम्। बाधे॑। सु॒ऽवृ॒क्ति। इन्द्रा॑य। हृ॒दा। मन॑सा। म॒नी॒षा। प्र॒त्नाय॑। पत्ये॑। धियः॑। म॒र्ज॒य॒न्त॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:61» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:27» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् मनुष्य ! तुम (अस्मै) इस (प्रत्नाय) प्राचीन सबके मित्र (पत्ये) स्वामी (इन्द्राय) शत्रुओं को विदारण करनेवाले के लिये (प्रयइव) जैसे प्रीतिकारक अन्न वा धन वैसे (प्रयंसि) सुख देते हो, जिस परमैश्वर्ययुक्त धार्मिक के लिये मैं सब सामग्री अर्थात् (हृदा) हृदय (मनीषा) बुद्धि (मनसा) विज्ञानपूर्वक मन से (सुवृक्ति) उत्तमता से गमन करानेवाले यान को (भरामि) धारण करता वा पुष्ट करता हूँ, जैसे (आङ्गूषम्) युद्ध में प्राप्त हुए शत्रु को (बाधे) ताड़ना देना जिस वीर के वास्ते सब प्रजा के मनुष्य (धियः) बुद्धि वा कर्म को (मर्जयन्त) शुद्ध करते हैं, उस पुरुष के लिये (इत्) ही (उ) तर्क के साथ मैं भी बुद्धि शुद्ध करूँ ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि पहिले परीक्षा किये पूर्ण विद्यायुक्त धार्मिक सबके उपकार करनेवाले प्राचीन पुरुष को सभा का अधिपति करें तथा इससे विरुद्ध मनुष्य को स्वीकार नहीं करें और सब मनुष्य उसके प्रिय आचरण करें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे विद्वंस्त्वमस्मै प्रत्नाय सुहृदे पत्य इन्द्राय प्रय इव यथा प्रीतमन्नं धनं वा दत्त्वाऽभिप्रीतमन्नं धनं वा प्रयंसि, यस्मा इन्द्रायाहं सर्वाभिः सामग्रीभिर्हृदा मनीषा मनसा सुवृक्ति भराम्याङ्गूषं बाधे यस्मै सर्वे वीराः प्रजास्थाश्च मनुष्या धियो मर्जयन्त शोधयन्ति, तस्मा इन्द्रायेद्वहमप्येता मार्जये ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) सभाद्यध्यक्षाय (इत्) एव (उ) वितर्के (प्रयइव) यथाप्रीतमन्नम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (यंसि) यच्छसि। अत्र शपो लुक्। (भरामि) धरामि पुष्णामि (आङ्गूषम्) युद्धे प्राप्तं शत्रुम् (बाधे) ताडयामि (सुवृक्ति) सुष्ठु व्रजन्ति येन यानेन तत् (इन्द्राय) शत्रुदुःखविदारकाय (हृदा) आत्मना (मनसा) मननात्मकेन (मनीषा) बुद्ध्या (प्रत्नाय) प्राचीनाय (पत्ये) स्वामिने (धियः) कर्माणि प्रज्ञा वा (मर्जयन्त) शोधयन्ति ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्नैव परीक्षितपूर्वं पूर्णविद्यं धार्मिकं सर्वोपकारकं प्राचीनं सभाद्यधिपतिं विहायैतद्विरुद्धः स्वीकर्तव्यः सर्वैस्तस्य प्रियमाचरणीयम् ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी प्रथम परीक्षा करून पूर्ण विद्यायुक्त धार्मिक सर्वांवर उपकार करणाऱ्या अनुभवी पुरुषाला सभेचा अधिपती करावे व याविरुद्ध माणसाचा स्वीकार करू नये तसेच सर्व माणसांनी त्याला प्रिय असेल असे आचरण करावे. ॥ २ ॥