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ए॒वा ते॑ हारियोजना सुवृ॒क्तीन्द्र॒ ब्रह्मा॑णि॒ गोत॑मासो अक्रन्। ऐषु॑ वि॒श्वपे॑शसं॒ धियं॑ धाः प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā te hāriyojanā suvṛktīndra brahmāṇi gotamāso akran | aiṣu viśvapeśasaṁ dhiyaṁ dhāḥ prātar makṣū dhiyāvasur jagamyāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व। ते॒। हा॒रि॒ऽयो॒ज॒न॒। सु॒ऽवृ॒क्ति। इन्द्र॑। ब्रह्मा॑णि। गोत॑मासः। अ॒क्र॒न्। आ। ए॒षु॒। वि॒श्वऽपे॑शसम्। धिय॑म्। धाः॒। प्रा॒तः। म॒क्षु। धि॒याऽव॑सुः। ज॒ग॒म्या॒त् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:61» मन्त्र:16 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:29» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (हारियोजन) यानों में घोड़े वा अग्नि आदि पदार्थ युक्त होनेवालों को पढ़ने वा जाननेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्य के प्राप्त करानेवाले (धियावसुः) बुद्धि और कर्म के निवास करनेवाले आप जो (एषु) इन स्तुति तथा विद्या पढ़नेवाले मनुष्यों में (विश्वपेशसम्) सब विद्यारूप गुणयुक्त (धियम्) धारणावाली बुद्धि को (प्रातः) प्रतिदिन (मक्षु) शीघ्र (आधाः) अच्छे प्रकार धारण करते हो तो जिन को ये सब विद्या (जगम्यात्) वार-वार प्राप्त होवें (गोतमासः) अत्यन्त सब विद्याओं की स्तुति करनेवाले (ते) आप के लिये (एव) ही (सुवृक्ति) अच्छे प्रकार दोषों को अलग करनेवाले शुद्धि किये हुए (ब्रह्माणि) बड़े-बड़े सुख करनेवाले अन्नों को देने के लिये (अक्रन्) सम्पादन करते हैं, उनकी अच्छे प्रकार सेवा कीजिये ॥ १६ ॥
भावार्थभाषाः - परोपकारी विद्वानों को उचित है कि नित्य प्रयत्नपूर्वक अच्छी शिक्षा और विद्या के दान से सब मनुष्यों को अच्छी शिक्षा से युक्त विद्वान् करें। तथा इतर मनुष्यों को भी चाहिये कि पढ़ानेवाले विद्वानों को अपने निष्कपट मन, वाणी और कर्मों से प्रसन्न करके ठीक-ठीक पकाए हुए अन्न आदि पदार्थों से नित्य सेवा करें। क्योंकि पढ़ने और पढ़ाने से पृथक् दूसरा कोई उत्तम धर्म नहीं है, इसलिये सब मनुष्यों को परस्पर प्रीतिपूर्वक विद्या की वृद्धि करनी चाहिये ॥ १६ ॥ इस सूक्त में सभाध्यक्ष आदि का वर्णन और अग्निविद्या का प्रचार करना आदि कहा है, इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥ इति श्रीयुतपरिव्राजकाचार्य्येण श्रीयुतमहाविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते ऋग्वेदभाष्ये चतुर्थोऽध्यायः समाप्तिमगात् ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे हारियोजनेन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! धियावसुर्भवान् यद्येषु विद्याऽध्येतृषु जनेषु विश्वपेशसं धियं प्रातर्मक्ष्वाधास्तर्हि सर्वा विद्या जगम्यात् प्राप्नुयात्। ये गोतमासः संस्तोतारस्ते तुभ्यमेव सुवृक्ति सुष्ठु वर्जितदोषाण्यभिसंस्कृतानि ब्रह्माणि बृहत्सुखकारकाण्यन्नान्यक्रँस्तान् सुसेवताम् ॥ १६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एव) अवधारणार्थे (ते) तुभ्यम् (हारियोजन) यो हरीन् तुरङ्गानग्न्यादीन् वा युनक्ति स एव तत्सम्बुद्धौ (सुवृक्ति) सुष्ठु वृक्तयो वर्जिता दोषा येभ्यस्तानि (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक (ब्रह्माणि) बृहत्सुखकारकाण्यन्नानि (गोतमासः) गच्छन्ति स्तुवन्ति सर्वा विद्यास्तेऽतिशयिताः। गौरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं०३.१६) (अक्रन्) कुर्य्युः (आ) समन्तात् (एषु) स्तोतृषु (विश्वपेशसम्) विश्वानि सर्वाणि पेशांसि रूपाणि यस्यां ताम् (धियम्) धारणावतीं प्रज्ञाम् (धाः) धर (प्रातः) प्रतिदिनम् (मक्षु) शीघ्रम् (धियावसुः) यः प्रज्ञाकर्मभ्यां सह वसति सः (जगम्यात्) भृशं प्राप्नुयात् ॥ १६ ॥
भावार्थभाषाः - परोपकारिभिर्विद्वद्भिर्नित्यं प्रयत्नेन सुशिक्षाविद्यादानाभ्यां सर्वे मनुष्याः सुशिक्षिता विद्वांसः सम्पादनीयाः। एते चाध्यापकान् विदुषो मनोवाक्कर्मभिः सत्कृत्य सुसंस्कृतैरन्नादिभिर्नित्यं सेवन्ताम्। नहि कश्चिदपि विद्यादानग्रहणाभ्यामुत्तमो धर्मोऽस्ति तस्मात् सर्वैः परस्परं प्रीत्या विद्योन्नतिः सदा कार्य्या ॥ १६ ॥ अस्मिन् सूक्ते सभाद्यध्यक्षाऽग्निविद्याप्रचारकरणाद्युक्तमत एतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीत्यवगन्तव्यम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परोपकारी विद्वानांनी नित्य प्रयत्नपूर्वक सुशिक्षण व विद्यादान इत्यादींनी सर्व माणसांना सुशिक्षित विद्वान करावे व इतर माणसांनी अध्यापन करणाऱ्या विद्वानांना आपल्या निष्कपट मन, वाणी व कर्मांनी प्रसन्न करून उत्तम अन्न इत्यादी पदार्थांनी नित्य सेवा करावी. कारण अध्ययनापेक्षा वेगळा दुसरा कोणताही धर्म नाही. त्यासाठी सर्व माणसांनी परस्पर प्रीतिपूर्वक विद्येची वृद्धी केली पाहिजे. ॥ १६ ॥