वांछित मन्त्र चुनें

अ॒स्येदे॒व शव॑सा शु॒षन्तं॒ वि वृ॑श्च॒द्वज्रे॑ण वृ॒त्रमिन्द्रः॑। गा न व्रा॒णा अ॒वनी॑रमुञ्चद॒भि श्रवो॑ दा॒वने॒ सचे॑ताः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asyed eva śavasā śuṣantaṁ vi vṛścad vajreṇa vṛtram indraḥ | gā na vrāṇā avanīr amuñcad abhi śravo dāvane sacetāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्य। इत्। ए॒व। शव॑सा। शु॒षन्तम्। वि। वृ॒श्च॒त्। वज्रे॑ण। वृ॒त्रम्। इन्द्रः॑। गाः। न। व्रा॒णाः। अ॒वनीः॑। अ॒मु॒ञ्च॒त्। अ॒भि। श्रवः॑। दा॒वने॑। सऽचे॑ताः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:61» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:28» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:10


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (सचेताः) तुल्य ज्ञानवान् (इन्द्रः) सेनाधिपति (अस्य) इस सभाध्यक्ष (एव) ही के (शवसा) बल तथा (वज्रेण) तेज से (शुषन्तम्) द्वेष से क्षीण हुए (वृत्रम्) प्रकाश के आवरण करनेवाले मेघ के समान आवरण करनेवाले शत्रु को (विवृश्चत्) छेदन करता है, वह (गाः) पशुओं को पशुओं के पालनेवाले बन्धन से छुड़ाकर वन को प्राप्त करते हुए के (न) समान (अवनीः) पृथिवी को (व्राणाः) आवरण किये हुए जल के तुल्य (दावने) देनेवाले के लिये (श्रवः) अन्न को (इत्) भी (अभ्यमुञ्चत्) सब प्रकार से छोड़ता है, वह राज्य करने को समर्थ होता है ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। जैसे बिजुली के सहाय से सूर्य्य वा सूर्य्य के सहाय से बिजुली बढ़ के विश्व को प्रकाशित और मेघ को छिन्न-भिन्न कर भूमि में गिरा देती है, जैसे गौओं का पालनेवाला गौऔं को बन्धन से छोड़कर सुखी करता है, वैसे ही सभा सेना के अध्यक्ष मनुष्य न्याय की रक्षा और शत्रुओं को छिन्न-भिन्न और धार्मिकों को दुःखरूपी बन्धनों से छुड़ाकर सुखी करें ॥ १० ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

यः सचेता इन्द्रोऽस्यैव शवसा वज्रेण शुषन्तं वृत्रं विवृश्चद्विछिनत्ति स गा न गोपालो बन्धनान्मोचयित्वा वनं गमयतीवावनीः व्राणा दावने श्रव इदपि व्राणा अपो वाभ्यमुञ्चदाभिमुख्येन मुञ्चति स राज्यं कर्तुमर्हति ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) सभाद्यध्यक्षस्य (इत्) अपि (एव) अवधारणे (शवसा) बलेन (शुषन्तम्) द्वेषेण प्रतापेन क्षीणम् (वि) विविधार्थे (वृश्चत्) छिनत्ति (वज्रेण) शस्त्रसमूहेन तेजोवेगेन वा (वृत्रम्) मेघमिव न्यायावरकं शत्रुं (इन्द्रः) सेनाधिपतिस्तनयित्नुर्वा (गाः) पशून् (न) इव (व्राणाः) आवृताः (अवनीः) पृथिवीं प्रति (अमुञ्चत्) मुञ्चति (अभि) आभिमुख्ये (श्रवः) श्रवणमन्नं वा (दावने) दात्रे (सचेताः) समानं चेतो विज्ञानं संज्ञापनं वा यस्य सः ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। यथा विद्युत्सहायेन सूर्यः सूर्यस्य सहायेन विद्युच्च प्रवृध्य विश्वं प्रकाश्य मेघं विच्छिद्य भूमौ निपातयति यथा गोपालो बन्धनादु गा विमुच्य सुखयति तथैव सभासदः सेनासदश्च न्यायं संरक्ष्य शत्रूंश्च छिन्नं भिन्नं कृत्वा धार्मिकान् दुःखबन्धनाद्विमोच्य सुखेयत् ॥ १० ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. जसे विद्युतच्या साह्याने सूर्य, सूर्याच्या साह्याने विद्युत वर्धित होऊन विश्वाला प्रकाशित करते व मेघाला छिन्नविछिन्न करून भूमीवर पाडते. जसा गोपाळ गाईंना बंधनातून मुक्त करून सुखी करतो. तसेच सभेच्या सेनाध्यक्षाने न्यायाने रक्षण करून शत्रूंना विदीर्ण करावे व धार्मिकांना दुःखबंधनातून सोडवून सुखी करावे. ॥ १० ॥