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अ॒स्य शासु॑रु॒भया॑सः सचन्ते ह॒विष्म॑न्त उ॒शिजो॒ ये च॒ मर्ताः॑। दि॒वश्चि॒त्पूर्वो॒ न्य॑सादि॒ होता॒पृच्छ्यो॑ वि॒श्पति॑र्वि॒क्षु वे॒धाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asya śāsur ubhayāsaḥ sacante haviṣmanta uśijo ye ca martāḥ | divaś cit pūrvo ny asādi hotāpṛcchyo viśpatir vikṣu vedhāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्य। शासुः॑। उ॒भया॑सः। स॒च॒न्ते॒। ह॒विष्म॑न्तः। उ॒शिजः॑। ये। च॒। मर्ताः॑। दि॒वः। चि॒त्। पूर्वः॑। नि। अ॒सा॒दि॒। होता॑। आ॒ऽपृच्छ्यः॑। वि॒श्पतिः॑। वि॒क्षु। वे॒धाः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:60» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:26» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:11» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (हविष्मन्तः) उत्तम सामग्रीयुक्त (उशिजः) शुभ गुण कर्मों की कामना करनेहारे (उभयासः) राजा और प्रजा के (मर्त्ताः) मनुष्य जिस (अस्य) इस (शासुः) सत्यन्याय के शासन करनेवाले (विक्षु) प्रजाओं में (सचन्ते) संयुक्त होते हैं, जो (होता) शुभ कर्मों का ग्रहण करनेहारा (आपृच्छ्यः) सब प्रकार के प्रश्नों के पूछने योग्य (वेधाः) विविध विद्या का धारण करनेवाला (विश्पतिः) प्रजाओं का स्वामी (दिवः) प्रकाश के (पूर्वः) पूर्व स्थित सूर्य के (चित्) समान धार्मिक जनों ने जो राज्यपालन के लिये नियुक्त किया हो (च) वही सब मनुष्यों को आश्रय करने के योग्य है ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जो विद्वान् धर्मात्मा और न्यायाधीशों से प्रशंसा को प्राप्त हों, जिनके शील से सब प्रजा सन्तुष्ट हो, उनकी सेवा पिता के समान सब लोग करें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

ये हविष्मन्त उशिज उभयासो मर्त्ता यस्यास्य शासुर्विक्षु सचन्ते यो होताऽऽपृच्छ्यो वेधा विश्पतिर्दिवः पूर्वश्चिदिव धार्मिकै राज्याय न्यसादि नियोज्यते सर्वैः स च समाश्रयितव्यः ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) वक्ष्यमाणस्य (शासुः) न्यायेन प्रजायाः प्रशासितुः (उभयासः) राजप्रजाजनाः (सचन्ते) समवयन्ति (हविष्मन्तः) प्रशस्तसामग्रीमन्तः (उशिजः) कामयितारः (ये) धर्मविद्ये चिकीर्षवः (च) समुच्चये (मर्त्ताः) मनुष्याः (दिवः) प्रकाशादुत्पन्नः (चित्) अपि (पूर्वः) अर्वाग्वर्त्तमानः (नि) नितराम् (असादि) साद्यते (होता) ग्रहीता (आपृच्छ्यः) समन्तान्निश्चयार्थं प्रष्टुं योग्यः (विश्पतिः) प्रजायाः पालयिता (विक्षु) प्रजासु (वेधाः) विविधशास्त्रजन्यमेधायुक्तः। विधाञो वेध च। (उणा०४.२२५) अनेनासुन् प्रत्ययो वेधादेशश्च ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्वद्भिर्धार्मिकैर्न्यायाधीशैः प्रशंस्यन्ते, येषां च विनयात् सर्वाः प्रजाः सन्तुष्यन्ते, ते सर्वैः पितृवत्सेवितव्याः ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे विद्वान, धर्मात्मा व न्यायाधीशांकडून प्रशंसित असतील, ज्यांचे शील पाहून सर्व प्रजा संतुष्ट होईल त्यांची सर्व लोकांनी पित्याप्रमाणे सेवा करावी. ॥ २ ॥