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इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्युषा। म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indreṇa saṁ hi dṛkṣase saṁjagmāno abibhyuṣā | mandū samānavarcasā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रे॑ण। सम्। हि। दृक्ष॑से। स॒म्ऽज॒ग्मा॒नः। अबि॑भ्युषा। म॒न्दू इति॑। स॒मा॒नऽव॑र्चसा॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:6» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:12» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त पदार्थ किस के सहाय से कार्य्य के सिद्ध करनेवाले होते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - यह वायु (अबिभ्युषा) भय दूर करनेवाली (इन्द्रेण) परमेश्वर की सत्ता के साथ (संजग्मानः) अच्छी प्रकार प्राप्त हुआ, तथा वायु के साथ सूर्य्य (संदृक्षसे) अच्छी प्रकार दृष्टि में आता है, (हि) जिस कारण ये दोनों (समानवर्चसा) पदार्थों के प्रसिद्ध बलवान् हैं, इसी से वे सब जीवों को (मन्दू) आनन्द के देनेवाले होते हैं॥७॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर ने जो अपनी व्याप्ति और सत्ता से सूर्य्य और वायु आदि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, इन सब पदार्थों के बीच में से सूर्य्य और वायु ये दोनों मुख्य हैं, क्योंकि इन्हीं के धारण आकर्षण और प्रकाश के योग से सब पदार्थ सुशोभित होते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि उन्हें पदार्थविद्या से उपकार लेने के लिये युक्त करें। यह बड़ा आश्चर्य्य है कि बहुवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग किया गया, तथा निरुक्तकार ने द्विवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग माना है, सो असङ्गत है। यह भी मोक्षमूलर साहब की कल्पना ठीक नहीं, क्योंकि व्यत्ययो ब० सुप्तिङुपग्रह० व्याकरण के इस प्रमाण से वचनव्यत्यय होता है। तथा निरुक्तकार का व्याख्यान सत्य है, क्योंकि सुपा सु० इस सूत्र से मन्दू इस शब्द में द्विवचन को पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश हो गया है॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

केन सहैते कार्य्यसाधका भवन्तीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

अयं वायुरबिभ्युषेन्द्रेणैव संजग्मानः सन् तथा वायुना सह सूर्य्यश्च सङ्गत्य संदृक्षसे दृश्यते दृष्टिपथमागच्छति हि यतस्तौ समानवर्चसौ वर्तेते तस्मात्सर्वेषां मन्दू भवतः॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रेण) परमेश्वरेण सूर्य्येण सह वा (सम्) सम्यक् (हि) निश्चये (दृक्षसे) दृश्यते। अत्र लडर्थे लेट्मध्यमैकवचनप्रयोगः। अनित्यमागमशासनमिति वचनप्रामाण्यात् सृजिदृशोरित्यम् न भवति। (संजग्मानः) सम्यक् सङ्गतः (अबिभ्युषा) भयनिवारणहेतुना किरणसमूहेन वायुगणेन सह वा (मन्दू) आनन्दितावानन्दकारकौ। मन्दू इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.१) (समानवर्चसा) समानं तुल्यं वर्चो दीप्तिर्यर्योस्तौ। यास्काचार्य्येणायं मन्त्र एवं व्याख्यातः—इन्द्रेण सं हि दृश्यसे संजग्मानो अबिभ्युषा गणेन मन्दू मदिष्णू युवां स्थोऽपि वा मन्दुना तेनेति स्यात्समानवर्चसेत्येतेन व्याख्यातम्। (निरु०४.१२)॥७॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरेणाभिव्याप्य स्वसत्तया सूर्य्यवाय्वादयः सर्वे पदार्था उत्पाद्य धारिता वर्त्तन्ते। एतेषां मध्य खलु सूर्य्यवाय्वोर्धारणाकर्षणप्रकाशयोगेन सह वर्त्तमानाः सर्वे पदार्थाः शोभन्ते। मनुष्यैरेते विद्योपकारं ग्रहीतुं योजनीयाः। ‘इदम्महदाश्चर्यं यद्बहुवचनस्यैकवचने प्रयोगः कृतोऽस्तीति। यच्च निरुक्तकारेण द्विवचनस्य स्थान एकवचनप्रयोगः कृतोऽस्त्यतोऽसङ्गतोऽस्ति।’ इति च मोक्षमूलरकल्पना सम्यङ् न वर्त्तते। कुतः, व्यत्ययो बहुलम्, सुप्तिङुपग्रह० इति वचनव्यत्ययविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्। तथा निरुक्तकारस्य व्याख्यानं समञ्जसमस्ति। कुतः, मन्दू इत्यत्र सुपां सुलुग्० इति पूर्वसवर्णादेशविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वराने स्वव्याप्ती व सत्ता यांनी सूर्य व वायू इत्यादी पदार्थ उत्पन्न करून धारण केलेले आहेत. या सर्व पदार्थांत सूर्य व वायू हे दोन मुख्य आहेत. कारण यांच्या धारण, आकर्षण व प्रकाशाच्या योगाने सर्व पदार्थ शोभायमान होतात. माणसांनी पदार्थविद्येचा लाभ घेताना त्यांचा उपयोग करून घ्यावा.
टिप्पणी: ‘हे मोठे आश्चर्य आहे की अनेकवचनाच्या स्थानी एकवचनाचा प्रयोग केलेला आहे व निरुक्तकाराने तर द्विवचनाच्या स्थानी एकवचनाचा प्रयोग मानलेला आहे, त्यासाठी तो असंगत आहे. ’ ही मोक्षमूलर साहेबांची कल्पना योग्य नाही. कारण ‘व्यत्ययो ब. सुप्तिङ्पग्रहे. ’ व्याकरणाच्या या प्रमाणाने वचनव्यत्यय होतो व निरुक्तकाराची व्याख्या सत्य आहे, कारण ‘सुपां सु. ’ या सूत्राने ‘मन्दू’ या शब्दात द्विवचनाला पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश झालेला आहे. ॥ ७ ॥