अगले मन्त्र में सूर्य्य के कर्म का उपदेश किया है-
पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग (इतः) इस (पार्थिवात्) पृथिवी के संयोग (वा) और (दिवः) इस अग्नि के प्रकाश (वा) लोकलोकान्तरों अर्थात् चन्द्र और नक्षत्रादि लोकों से भी (सातिम्) अच्छी प्रकार पदार्थों के विभाग करते हुए (वा) अथवा (रजसः) पृथिवी आदि लोकों से (महः) अति विस्तारयुक्त (इन्द्रम्) सूर्य्य को (ईमहे) जानते हैं॥१०॥
भावार्थभाषाः - सूर्य्य की किरण पृथिवी में स्थित हुए जलादि पदार्थों को भिन्न-भिन्न करके बहुत छोटे-छोटे कर देती है, इसी से वे पदार्थ पवन के साथ ऊपर को चढ़ जाते हैं, क्योंकि वह सूर्य्य सब लोकों से बड़ा है। हम लोग आकाश पृथिवी तथा बड़े आकाश से सहाय के लिये इन्द्र की प्रार्थना करते हैं, यह भी डाक्टर मोक्षमूलर साहब की व्याख्या अशुद्ध है, क्योंकि सूर्य्यलोक सब से बड़ा है, और उसका आना-जाना अपने स्थान को छोड़ के नहीं होता, ऐसा हम लोग जानते हैं॥१०॥सूर्य्य और पवन से जैसे पुरुषार्थ की सिद्धि करनी चाहिये तथा वे लोक जगत् में किस प्रकार से वर्त्तते रहते हैं और कैसे उनसे उपकारसिद्धि होती है, इन प्रयोजनों से पाँचवें सूक्त के अर्थ के साथ छठे सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। और सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी अङ्गरेज विलसन आदि लोगों ने भी इस सूक्त के मन्त्रों के अर्थ बुरी चाल से वर्णन किये हैं।