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देवता: इन्द्र: ऋषि: सव्य आङ्गिरसः छन्द: जगती स्वर: निषादः

अध॑ ते॒ विश्व॒मनु॑ हासदि॒ष्टय॒ आपो॑ नि॒म्नेव॒ सव॑ना ह॒विष्म॑तः। यत्पर्व॑ते॒ न स॒मशी॑त हर्य॒त इन्द्र॑स्य॒ वज्रः॒ श्नथि॑ता हिर॒ण्ययः॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adha te viśvam anu hāsad iṣṭaya āpo nimneva savanā haviṣmataḥ | yat parvate na samaśīta haryata indrasya vajraḥ śnathitā hiraṇyayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध॑। ते॒। विश्व॑म्। अनु॑। ह॒। अ॒स॒त्। इ॒ष्टये॑। आपः॑। नि॒म्नाऽइ॑व। सव॑ना। ह॒विष्म॑तः। यत्। पर्व॑ते। न। स॒म्ऽअशी॑त। ह॒र्य॒तः। इन्द्र॑स्य। वज्रः॑। श्नथि॑ता। हि॒र॒ण्ययः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:57» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:22» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर बिजुली के दृष्टान्त से सभा आदि के अध्यक्ष के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जिस (हविष्मतः) उत्तम दानग्रहणकर्त्ता (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवाले सभाध्यक्ष का (हिरण्ययः) ज्योतिःस्वरूप (वज्रः) शस्त्ररूप किरणें (पर्वते) मेघ में (न) जैसे (श्नथिता) हिंसा करनेवाला होता है, वैसे (हर्यतः) उत्तम व्यवहार (समशीत) प्रसिद्ध हो (अध) इसके अनन्तर (ते) आप के समाश्रय से (विश्वम्) सब जगत् (सवना) ऐश्वर्य को (आपः) जल (निम्नेव) जैसे नीचे स्थान को जाते हैं, वैसे (इष्टये) अभीष्ट सिद्धि के लिये (ह) निश्चय करके (अन्वसत्) हो, उसी सभाध्यक्ष वा बिजुली का हम सब मनुष्यों को समाश्रय वा उपयोग करना चाहिये ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पर्वत वा मेघ का समाश्रय कर सिंह आदि वा जल रक्षा को प्राप्त होकर स्थित होते हैं, जैसे नीचे स्थानों में रहनेवाला जलसमूह सुख देनेवाला होता है, वैसे ही सभाध्यक्ष के आश्रय से प्रजा की रक्षा तथा बिजुली की विद्या से शिल्पविद्या की सिद्धि को प्राप्त होकर सब प्राणी सुखी होवें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः विद्युद्वत्सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

यद्यस्य हविष्मतो जनस्येन्द्रस्य हिरण्ययो ज्योतिर्मयो वज्रः पर्वते श्नथिता नेव हर्यतो व्यवहारः समशीताध ते समाश्रयेन विश्वं सर्वं जगत्सवनाऽऽपो निम्नेवेष्टये ह खल्वन्वसत् सोऽस्माभिः समाश्रयितव्यः ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) आनन्तर्ये (ते) तव (विश्वम्) सर्वं जगत् (अनु) अनुयोगे (ह) निश्चये (असत्) भवेत् (इष्टये) अभीष्टसिद्धये (आपः) जलानि (निम्नेव) यथा निम्नानि स्थानानि गच्छन्ति तथा (सवना) ऐश्वर्याणि (हविष्मतः) प्रशस्तानि हवींषि विद्यन्ते यस्य (यत्) यस्य (पर्वते) गिरौ मेघे वा (न) इव (समशीत) सम्यग् व्याप्नुयात्। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। (हर्यतः) गमयिता कमनीयो वा (इन्द्रस्य) विद्युतः (वज्रः) ऊष्मसमूहः (श्नथिता) हिंसिता (हिरण्ययः) ज्योतिर्मयः ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा शैलं मेघं वा समाश्रित्य सिंहादयो जलानि वा रक्षितानि स्थिराणि जायन्ते, तथैव सभाद्यध्यक्षाश्रयेण प्रजाः स्थिरानन्दा भवन्ति ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे पर्वत किंवा मेघ यांचा आश्रय घेऊन सिंह, जल इत्यादींचे रक्षण होते व ते स्थित होतात. जसे निम्न स्थली राहणारा जलसमूह सुख देणारा असतो. तसेच सभाध्यक्षाच्या आश्रयाने प्रजेचे रक्षण व्हावे व विद्युत विद्येने शिल्पविद्येची सिद्धी प्राप्त करून सर्व प्राणी सुखी व्हावेत. ॥ २ ॥