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सो अ॑र्ण॒वो न न॒द्यः॑ समु॒द्रियः॒ प्रति॑ गृभ्णाति॒ विश्रि॑ता॒ वरी॑मभिः। इन्द्रः॒ सोम॑स्य पी॒तये॑ वृषायते स॒नात्स यु॒ध्म ओज॑सा पनस्यते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

so arṇavo na nadyaḥ samudriyaḥ prati gṛbhṇāti viśritā varīmabhiḥ | indraḥ somasya pītaye vṛṣāyate sanāt sa yudhma ojasā panasyate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। अ॒र्ण॒वः। न। न॒द्यः॑। स॒मु॒द्रियः॑। प्रति॑। गृ॒भ्णा॒ति॒। विऽश्रि॑ताः। वरी॑मऽभिः। इन्द्रः॑। सोम॑स्य। पी॒तये॑। वृ॒ष॒ऽय॒ते॒। स॒नात्। सः। यु॒ध्मः। ओज॑सा। प॒न॒स्य॒ते॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:55» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसे गुणवाला हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (इन्द्रः) सभाध्यक्ष सूर्य के समान (सोमस्य) वैद्यक विद्या से सम्पादित वा स्वभाव से उत्पन्न हुए रस के (पीतये) पीने के लिये (वृषायते) बैल के समान आचरण करता है (सः) वह (युध्मः) युद्ध करनेवाला पुरुष (न) जैसे (विश्रिताः) नाना प्रकार के देशों को सेवन करने हारी (नद्यः) नदियाँ (अर्णवः) समुद्र को प्राप्त होके स्थिर होती और जैसे (समुद्रियः) सागरों में चलने योग्य नौकादि यान समूह पार पहुँचाता है, जैसे (सनात्) निरन्तर (ओजसा) बल से (वरीमभिः) धर्म वा शिल्पी क्रिया से (पनस्यते) व्यवहार करनेवाले के समान आचरण और पृथिवी आदि के राज्य को (प्रतिगृभ्णाति) ग्रहण कर सकता है, वह राज्य करने और सत्कार के योग्य है, उस को सब मनुष्य स्वीकार करें ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे समुद्र नाना प्रकार के रत्न और नाना प्रकार की नदियों को अपनी महिमा से अपने में रक्षा करता है, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि भी अनेक प्रकार के पदार्थ और अनेक प्रकार की सेनाओं को स्वीकार कर दुष्टों को जीत और श्रेष्ठों की रक्षा करके अपनी महिमा फैलावें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृग्गुण इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

य इन्द्रः सूर्य इव सोमस्य पीतये वृषायते सयुध्मो विश्रिता नद्योऽर्णवो न समुद्रियः सनादोजसा वरीमभिः पनस्यते राज्यं प्रति गृभ्णाति स राज्याय सत्काराय च सर्वैर्मनुष्यैः स्वीकार्य्यः ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) उक्तार्थः (अर्णवः) समुद्रः (न) इव (नद्यः) सरितः (समुद्रियः) समुद्रे भवो नौसमूहः (प्रति) क्रियायोगे (गृभ्णाति) गृह्णाति (विश्रिताः) विविधप्रकारैः सेवमानाः (वरीमभिः) वृण्वन्ति ये तैः शिल्पिभिः (इन्द्रः) सभाद्यध्यक्षः (सोमस्य) वैद्यविद्यासम्पादितस्य (पीतये) पानाय (वृषायते) वृष इवाचरति (सनात्) सर्वदा (सः) (युध्मः) यो युध्यते सः (ओजसा) बलेन (पनस्यते) यः पनायति व्यवहरति स पना, पना इवाचरति ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सागरो विविधानि रत्नानि नानानदींश्च स्वमहिम्ना स्वस्मिन् संरक्षति तथैव सभाद्यध्यक्षो विविधान् पदार्थान्नानाविधाः सेनाः स्वीकृत्य दुष्टान् पराजित्य श्रेष्ठान् संरक्ष्य स्वमहिमानं विस्तारयेत् ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा समुद्र नाना प्रकारची रत्ने व नाना प्रकारच्या नद्यांचे आपल्या महानतेने रक्षण करतो तसेच सभाध्यक्ष इत्यादीनीही अनेक प्रकारचे पदार्थ व अनेक प्रकारची सेना स्वीकारून, दुष्टांना जिंकून श्रेष्ठांचे रक्षण करून आपली प्रतिष्ठा वाढवावी. ॥ २ ॥