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अर्चा॑ दि॒वे बृ॑ह॒ते शू॒ष्यं१॒॑ वचः॒ स्वक्ष॑त्रं॒ यस्य॑ धृष॒तो धृ॒षन्मनः॑। बृ॒हच्छ्र॑वा॒ असु॑रो ब॒र्हणा॑ कृ॒तः पु॒रो हरि॑भ्यां वृष॒भो रथो॒ हि षः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

arcā dive bṛhate śūṣyaṁ vacaḥ svakṣatraṁ yasya dhṛṣato dhṛṣan manaḥ | bṛhacchravā asuro barhaṇā kṛtaḥ puro haribhyāṁ vṛṣabho ratho hi ṣaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अर्च॑। दि॒वे। बृ॒ह॒ते। शू॒ष्य॑म्। वचः॑। स्वऽक्ष॑त्रम्। यस्य॑। धृ॒ष॒तः। धृ॒षत्। मनः॑। बृ॒हत्ऽश्र॑वाः। असु॑रः। ब॒र्हणा॑। कृ॒तः। पु॒रः। हरि॑ऽभ्याम्। वृ॒ष॒भः। रथः॑। हि। सः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:54» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सभाध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् मनुष्य ! तू (यस्य) जिस (धृषतः) अधार्मिक दुष्टों को कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करानेवाले सभाध्यक्ष का (धृषत्) दृढ़ कर्म करनेवाला (मनः) क्रियासाधक विज्ञान (हि) निश्चय करके है, जो (बृहच्छ्रवाः) महाश्रवणयुक्त (असुरः) जैसे प्रज्ञा देनेवाले (पुरः) पूर्व (हरिभ्याम्) हरण-आहरण करने वा अग्नि, जल वा घोड़े से युक्त मेघ (दिवे) सूर्य के अर्थ वर्त्तता है, वैसे (वृषभः) पूर्वोक्त वर्षाने वालों के प्रकाश करनेवाले (रथः) यानसमूह को (बर्हणा) वृद्धि से (कृतः) निर्मित किया है, उस (बृहते) विद्यादि गुणों से वृद्ध (दिवे) शुभ गुणों के प्रकाश करनेवाले के लिये (स्वक्षत्रम्) अपने राज्य को बढ़ा और (शूष्यम्) बल तथा निपुणतायुक्त (वचः) विद्या शिक्षा प्राप्त करनेवाले वचन का (अर्च) पूजन अर्थात् उनके सहाय युक्त शिक्षा कर ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि ईश्वर को इष्ट, सभाध्यक्ष से शासित, एक मनुष्य के प्रशासन से अलग राज्य को सम्पादन करें, जिससे कभी दुःख, अन्याय, आलस्य, अज्ञान और शत्रुओं के परस्पर विरोध से प्रजा पीड़ित न होवे ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे विद्वन्मनुष्य ! त्वं यस्य धृषतो मनो हि यो धृषद् बृहच्छ्रवा असुरः पुरो हरिभ्यां युक्तो दिव इव वृषभो रथो बर्हणा कृतस्तस्मै बृहते स्वक्षत्रं वर्धय शूष्यं वचोऽर्च च ॥ १३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्च) पूजय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दिवे) सर्वथा शुभगुणस्य प्रकाशकाय (बृहते) विद्यादिगुणैर्वृद्धाय (शूष्यम्) शूषे बले साधु यत्तत्। शूषमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (वचः) विद्याशिक्षासत्यप्रापकं वचनम् (स्वक्षत्रम्) स्वस्य राज्यम् (यस्य) सभाध्यक्षस्य (धृषतः) अधार्मिकान् दुष्टान् धर्षयतस्तत्कर्मफलं प्रापयतः (धृषत्) यो धृष्णोति दृढं कर्म करोति सः (मनः) सर्वक्रियासाधकं विज्ञानम् (बृहच्छ्रवाः) बृहच्छ्रवणं यस्य सः (असुरः) मेघो वा यः प्रज्ञां राति ददाति सः। असुर इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) असुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (बर्हणा) वृद्धियुक्तेन (कृतः) निष्पन्नः (पुरः) पूर्वः (हरिभ्याम्) सुशिक्षिताभ्यां तुरङ्गाभ्यां (वृषभः) यः पूर्वोक्तान् वृषान् भाति सः (रथः) रमणीयः (हि) खलु (सः) ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरीश्वरेष्टं सभाद्यध्यक्षप्रशासितमेकमनुष्यराजप्रशासनविरहं राज्यं सम्पादनीयम्। यतः कदाचिद् दुःखान्यायालस्याज्ञानशत्रुपरस्परविरोधपीडितं न स्यात् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी एका माणसाच्या राज्य प्रशासनापेक्षा ईश्वर व सभाध्यक्षाकडून प्रशंसित राज्य संपादन करावे. ज्यामुळे सर्व दुःख, अन्याय, आळस, अज्ञान व शत्रूंचा परस्पर विरोध यांनी प्रजा त्रस्त होता कामा नये. ॥ ३ ॥