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ह्र॒दं न हि त्वा॑ न्यृ॒षन्त्यू॒र्मयो॒ ब्रह्मा॑णीन्द्र॒ तव॒ यानि॒ वर्ध॑ना। त्वष्टा॑ चित्ते॒ युज्यं॑ वावृधे॒ शव॑स्त॒तक्ष॒ वज्र॑म॒भिभू॑त्योजसम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hradaṁ na hi tvā nyṛṣanty ūrmayo brahmāṇīndra tava yāni vardhanā | tvaṣṭā cit te yujyaṁ vāvṛdhe śavas tatakṣa vajram abhibhūtyojasam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ह्र॒दम्। न। हि। त्वा॒। नि॒ऽऋ॒षन्ति॑। ऊ॒र्मयः॑। ब्रह्मा॑णि। इ॒न्द्र॒। तव॑। यानि॑। वर्ध॑ना। त्वष्टा॑। चि॒त्। ते॒। युज्य॑म्। व॒वृ॒धे॒। शवः॑। त॒तक्ष॑। वज्र॑म्। अ॒भिभू॑तिऽओजसम् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:52» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) बिजुली के समान वर्त्तमान (ते) आपके (वर्द्धना) बढ़ानेहारे (ब्रह्माणि) बड़े-बड़े अन्न (ऊर्मयः) तरंग आदि (ह्रदम्) (न) जैसे नदी जलस्थान को प्राप्त होती हैं, वैसे (हि) निश्चय करके ज्योतियों को (न्यृषन्ति) प्राप्त होते हैं, वह (त्वष्टा) मेघाऽवयव वा मूर्तिमान् द्रव्यों का छेदन करनेवाले (शवः) बल (अभिभूत्योजसम्) ऐश्वर्ययुक्त पराक्रम तथा (युज्यम्) युक्त करने योग्य (वज्रम्) प्रकाशसमूह का प्रहार करके सब पदार्थों को (ततक्ष) छेदन करता है, वैसे आप भी हूजिये ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जल नीचे स्थानों को जाकर स्थिर वा स्वच्छ होता है, वैसे ही राजपुरुष उत्तम-उत्तम गुणयुक्त तथा विनयवाले पुरुष को प्राप्त होकर स्थिर और शुद्धि करनेवाले होते हैं ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! ते वर्द्धना ब्रह्माण्यूर्मयो ह्रदं न न्यृषन्ति यथा हि त्वष्टा ज्योतींषि शवोऽभिभूत्योजसं युज्यं वज्रं प्रहृत्य सर्वान् पदार्थान् ततक्ष तक्षति तथा त्वं भव ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ह्रदम्) जलाशयम् (न) इव (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (न्यृषति) नितराम् प्राप्नुवन्ति (ऊर्मयः) तरङ्गादयः (ब्रह्माणि) बृहत्तमान्यन्नानि (इन्द्र) विद्युद्वद्वर्त्तमान (तव) (यानि) वक्ष्यमाणानि (वर्धना) सुखानां वर्धनानि (त्वष्टा) मेघाऽवयवानां मूर्त्तद्रव्याणां च छेत्ता (चित्) अपि (ते) तव (युज्यम्) योक्तुमर्हम् (वावृधे) वर्धते (शवः) बलम् (ततक्ष) तक्षति (वज्रम्) प्रकाशसमूहम् (अभिभूत्योजसम्) अभिगतानि तप ऐश्वर्याण्योजः पराक्रमश्च यस्मात्तम् ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा जलं निम्नं स्थानं गत्वा स्थिरं स्वच्छं भवति तथा सद्गुणविनयवन्तं पुरुषं प्राप्य स्थिराः शुद्धिकारका भवन्तीति ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे जल निम्नस्थानी वाहते व स्थिर आणि स्वच्छ होते. तसेच राजपुरुष उत्तम गुणांनी युक्त विनयी पुरुषामुळे स्थिर व शुद्धिकारक बनतात. ॥ ७ ॥