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स हि द्व॒रो द्व॒रिषु॑ व॒व्र ऊध॑नि च॒न्द्रबु॑ध्नो॒ मद॑वृद्धो मनी॒षिभिः॑। इन्द्रं॒ तम॑ह्वे स्वप॒स्य॑या धि॒या मंहि॑ष्ठरातिं॒ स हि पप्रि॒रन्ध॑सः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa hi dvaro dvariṣu vavra ūdhani candrabudhno madavṛddho manīṣibhiḥ | indraṁ tam ahve svapasyayā dhiyā maṁhiṣṭharātiṁ sa hi paprir andhasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। हि। द्व॒रः। द्व॒रिषु॑। व॒व्रः। ऊध॑नि। च॒न्द्रऽबु॑ध्नः। मद॑ऽवृद्धः। म॒नी॒षिऽभिः॑। इन्द्र॑म्। तम्। अ॒ह्वे॒। सु॒ऽअ॒प॒स्यया॑। धि॒या। मंहि॑ष्ठऽरातिम्। सः। हि। पप्रिः॑। अन्ध॑सः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:52» मन्त्र:3 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (ऊधनि) प्रातःकाल में (द्वरिषु) अन्धकारावृत व्यवहारों में (द्वरः) अन्धकार से आवृत द्वार (चन्द्रबुध्नः) बुध्न अर्थात् अन्तरिक्ष में सुवर्ण वा चन्द्रमा के वर्ण से युक्त (मदवृद्धः) हर्ष से बढ़ा हुआ (अन्धसः) अन्नादि को (पप्रिः) पूर्ण करनेवाला (वव्रः) कूप के समान मेघ है, उसके तुल्य (मनीषिभिः) मेधावियों के साथ (हि) निश्चय करके वर्त्तमान सभाध्यक्ष है (तम्) उस (मंहिष्ठरातिम्) अत्यन्त पूजनीय दानयुक्त (इन्द्रम्) विद्वान् को (स्वपस्यया) उत्तम कर्मयुक्त व्यवहार में होनेवाली (धिया) बुद्धि से मैं (अह्वे) आह्वान करता हूँ ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो मेघ के तुल्य प्रजापालन करता है, उस परमैश्वर्य युक्त पुरुष को सभाध्यक्ष का अधिकार देवें ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

य ऊधनि द्वरिषु द्वरश्चन्द्रबुध्नो मदवृद्धोऽन्धसः पप्रिर्वव्र इव मेघोऽस्ति, तद्वन्मनीषिभिः सह वर्त्तमानः सभाध्यक्षो हि किल वर्त्तेत, तं मंहिष्ठरातिमिन्द्रं स्वपस्यया धियाऽहमह्व आह्वयामि ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) पूर्वोक्तः (हि) किल (द्वरः) यो द्वरत्यावृणोति (द्वरिषु) आवरकेषु व्यवहारेषु (वव्रः) कूप इव। वव्र इति कूपनामसु पठितम्। (निघं०३.२३) (ऊधनि) उषसि। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे० इति ऊधसो नङ् (अष्टा०५.४.१३१) इति समासान्तोऽनङादेशः। ऊध इत्युषर्नामसु पठितम्। (निघं०१.८) (चन्द्रबुध्नः) चन्द्रं सुवर्णं चन्द्रमा वा बुध्नेऽन्तरिक्षे यस्य यस्माद्वा सः। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं०१.२) (मदवृद्धः) मदो हर्षो वृद्धो यस्य यस्माद्वा सः (मनीषिभिः) मेधाविभिः। मनीषीति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (इन्द्रम्) विद्वांसम् (तम्) पूर्वोक्तम् (अह्वे) आह्वयामि (स्वपस्यया) अप इति कर्मनामसु पठितम्। (निघं०२.१) (धिया) प्रज्ञया (मंहिष्ठरातिम्) अतिशयेन मंहित्री रातिर्दानं यस्य यस्माद्वा तम् (सः) पूर्वोक्तः (हि) खलु (पप्रिः) पूरकः (अन्धसः) अन्नादेः ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यो मेघवत्प्रजाः पालयति सूर्यवत्सुखं वर्षति, स परमैश्वर्यवान् सभाध्यक्षः संस्थापनीयः ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो मेघाप्रमाणे प्रजापालन करतो. त्या परम ऐश्वर्ययुक्त पुरुषाला सभाध्यक्षाचा अधिकार द्यावा. ॥ ३ ॥